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प्रतिपाती शुक्ल - ध्यान है ।
११. ये उपचार से कारण परमात्मा कहलाते हैं।
१२. इसमें किसी भी कर्म - प्रकृति का अभाव नहीं होता है।
इत्यादि अनेकप्रकार से इन दोनों में पारस्परिक अंतर है।
प्रश्न ७८ : इतना विस्तृत गुणस्थान का यह प्रकरण समझने में हमें क्या लाभ है ?
चौथा शुक्ल - ध्यान होता है। ये वास्तव में कारण परमात्मा हैं ।
इसमें शेष रहीं सम्पूर्ण ८५ प्रकृतिओं का अभाव हो जाता है।
उत्तर : गुणस्थान का यह प्रकरण समझने से हमें अनेकानेक लाभ हैं। जिनमें से कुछ मुख्य निम्नलिखित हैं
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१. गुणस्थान - निर्देश का प्रयोजन बताते हुए भट्ट अकलंकदेव अपने 'तत्त्वार्थराजवार्तिक' ग्रन्थ में लिखते हैं- "तस्य संवरस्य विभावनार्थं गुणस्थानविभागवचनं क्रियते - उस संवर के स्वरूप का विशेष परिज्ञान करने के लिए गुणस्थान के विभाग का वचन अर्थात् चौदह गुणस्थानों का विवेचन किया जाता है।"
संवर मोक्षमार्ग है, सम्यक्रत्नत्रय - स्वरूप है, भूमिकानुसार अतीन्द्रिय आनंदमय दशा और अतीन्द्रिय आनंद का कारण है । उपर्युक्त कथन से अत्यंत स्पष्ट है कि उस संवर का यदि विशेष ज्ञान करना चाहते हैं तो गुणस्थानों का स्वरूप जानना अत्यंत आवश्यक है।
२. गुणस्थानों के ज्ञान से सच्चे देव, धर्म, शास्त्र, गुरु का निर्णय होता है; जिससे इनसे भिन्न को सच्चे देव आदि मानने आदि रूप गृहीत मिथ्यात्व तो नष्ट होता ही है; अगृहीत मिथ्यात्व को नष्ट करने का भी सही मार्ग समझ में आ जाता है ।
३. इनके ज्ञान से हमें अपनी भूमिका का भी यथार्थ ज्ञान हो जाता है; जिससे उससे आगे बढ़ने के लिए सही दिशा में सही पुरुषार्थ करने का मार्ग प्रशस्त हो जाता है ।
४. जीव के भावों और कर्मों के बंध आदि के मध्य होने वाले सहज घनिष्ठतम निमित्त-नैमित्तिक संबंध का भी ज्ञान इस प्रकरण से हो जाता है; चतुर्दश गुणस्थान / १८७