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________________ काल तक संसार में रह सकते हैं। । १३. यह मोक्षमार्ग में नियम से प्राप्त | यह मोक्षमार्ग में नियम से प्राप्त होनेवाला गुणस्थान नहीं है। होनेवाला गुणस्थान है। १४. इसमें किसी भी कर्म-प्रकृति | इसके अंत पर्यंत ६३ कर्म प्रकृतिओं का अभाव नहीं होता है। का अभाव हो जाता है। इत्यादि अनेक प्रकार से इन दोनों में पारस्परिक अंतर है। प्रश्न ७७: सयोग केवली जिन और अयोग केवली जिन नामक क्रमश: तेरहवें और चौदहवें गुणस्थान का अंतर स्पष्ट कीजिए। उत्तर : इन दोनों का पारस्परिक अंतर इसप्रकार है - ____सयोग केवली अयोग केवली १. गुणस्थान क्रम में यह तेरहवाँ गुणस्थान क्रम में यह चौदहवाँ गुणगुणस्थान है। स्थान है। २. यहाँ योगों का कम्पन होने से यहाँ योग-कम्पन नहीं होने से ईर्यासातावेदनीय का ईर्यापथ आस्रव है। | पथ आस्रव भी नहीं है। ३. इनके विहार, दिव्यध्वनि आदि इनके कोई भी क्रियाएं नहीं होती हैं। क्रियाएं होती हैं। ४. यहाँ बारहवेंसे आगमन होता है। यहाँ तेरहवें से आगमन होता है। ५. यहाँ से अयोग केवली में गमन | यहाँ से सिद्ध दशा में गमन होता है। होता है। ६. इनके सामान्य केवली आदि। इनके वैसे भेद नहीं होते हैं। अनेकों भेद होते हैं। ७. इनके काल में जघन्य, उत्कृष्ट | इनके काल में काल-भेद नहीं है। आदि भेद बनते हैं। ८. आयु की विविधता के कारण | यहाँ ५ ह्रस्वाक्षरों के उच्चारण प्रमाण यहाँ रहने की भी विविधता है। काल मात्र ही रहते हैं। ९. यहाँ समुद्घात हो सकता है। यहाँ वह नहीं होता है। १०. इसके अंत में सूक्ष्म क्रिया- | इसमें व्युपरत क्रिया निर्वृत्ति नामक - तत्त्वज्ञान विवेचिका भाग २/१८६ -
SR No.007197
Book TitleTattvagyan Vivechika Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalpana Jain
PublisherA B Jain Yuva Federation
Publication Year2008
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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