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________________ है; जो इसप्रकार है___ प्रमत्तसंयत अप्रमत्तसंयत १. गुणस्थान क्रम में यह छठवाँ | गुणस्थान क्रम में यह सातवाँ गणगुणस्थान है। स्थान है। २. यह शुद्ध-परिणति सहित शुभोप- | यह शुद्ध-परिणति सहित शुद्धोयोगमय दशा है। पयोगमय दशा है। ३. यहाँ संज्वलन और नो कषायों | यहाँ उनका मंद उदय है। का तीव्र उदय है। ४. यहाँ से श्रेणी-आरोहण का | इसके सातिशय भाग से श्रेणीपुरुषार्थ प्रारम्भ नहीं होता है। आरोहण का पुरुषार्थ होता है। ५. यहाँ से गमन करने पर ऊपर | यहाँ से गमन करने पर ऊपर आठवें सातवें तथा नीचे के पाँचवें आदि | तथा नीचे छठवें में और मरण की सभी गुणस्थानों में जा सकते हैं। | अपेक्षा मात्र चौथे में जा सकते हैं। ६. यहाँ आगमन एकमात्र सातवें | | यहाँ आगमन उपशमक आठवें से से ही होता है। तथा दूसरे, तीसरे को छोड़कर नीचे के सभी गुणस्थानों से होता है। ७. आहार, विहार, निहार, ऋद्धि- | यह इन सभी क्रियाओं से रहित एप्रयोग आदि सभी शुभ-क्रियाएं कमात्र आत्म-ध्यान की दशा है। इसमें होती हैं। ८. इसमें व्यक्त और अव्यक्त दोनों | यह प्रमाद-रहित दशा है। प्रकार के प्रमाद रहते हैं। ९. संज्वलनादि के तीव्रोदयरूप | संज्वलनादि के मंदोदयरूप यहाँ इन भावों से असातावेदनीय आदि | स्थित विकृत भावों से मात्र एक छह प्रकृतिओं का बंध होता है। | देवायु का ही बंध हो सकता है। १०. इसका उत्कृष्ट काल यथा- | इसका उत्कृष्ट काल यथायोग्य अंयोग्य अंतर्मुहूर्त होने पर भी अप्रमत्त | तर्मुहूर्त होने पर भी प्रमत्त से कम है। से अधिक है। ११. आचार्य, उपाध्याय आदि | इसमें ये भेद नहीं होते हैं। पदों का भेद इसमें ही होता है। - चतुर्दश गुणस्थान/१८३ --
SR No.007197
Book TitleTattvagyan Vivechika Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalpana Jain
PublisherA B Jain Yuva Federation
Publication Year2008
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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