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मुक्त, साक्षात्-मुक्त, निकल-परमात्मा, व्यवहारातीत, कार्य-परमात्मा, संसारातीत, निरंजन, निष्काम, ज्ञान-शरीरी, अशरीरी, देह-मुक्त इत्यादि नामों से भी जाने जाते हैं।
सम्यक्त्व की अपेक्षा यहाँ परमावगाढ़रूप क्षायिक सम्यक्त्व और चारित्र की अपेक्षा परम यथाख्यात चारित्ररूप क्षायिक चारित्र है। ___ यहाँ एकमात्र शुद्ध जीवत्वरूप पारिणामिक भाव और क्षायिक भाव ही हैं; शेष औपशमिक, क्षायोपशमिक और औदयिक भाव नहीं हैं। प्रश्न ७३ : गुणस्थानातीत सिद्ध दशा के भेद, काल और गमनागमन को स्पष्ट कीजिए। उत्तर : गुणस्थानातीत सिद्धदशा में पूर्ण आत्माभिव्यक्ति होने से अर्थपर्यायों की अपेक्षा तो इनमें कुछ भी भेद नहीं है; परन्तु चौदहवें गुणस्थानवर्ती अंतिम-शरीर-सापेक्ष आत्म-प्रदेशों की अवगाहना की अपेक्षा भेद होते हैं। यहाँ आत्म-प्रदेशों की उत्कृष्ट अवगाहना कुछ कम ५२५ धनुष
और जघन्य अवगाहना कुछ कम साढ़े तीन हाथ होती है। इन दोनों के मध्य संबंधी सभी आकार अवगाहना के मध्यम-भेद जानना चाहिए। ___ भूतपूर्व प्रज्ञापन नैगम नय की अपेक्षा आचार्यों ने तो क्षेत्र, काल, गति आदि की अपेक्षा भी सिद्धों में भेद किए हैं। ___ काल की अपेक्षा सिद्ध दशा पर्याय होने से यद्यपि एकसमयवर्ती सादि-सांत है; तथापि सदा एक समान ही उत्पन्न होती रहने के कारण परम्परा की अपेक्षा सादि-अनंत काल पर्यंत पूर्णतया स्थायी है।
गमनागमन की अपेक्षा यह सर्वोत्तम दशा होने के कारण गमन से रहित अचल, अनुपम, ध्रुव है। यहाँ आगमन सदा ही अयोग केवली नामक चौदहवें गुणस्थान से ही होता है। सिद्ध दशा प्राप्त हो जाने के बाद अब ये सिद्ध जीव पूर्णतया सदा-सदा के लिए गमनागमन से रहित हो आत्मानंद में ही निमग्न रहते हैं। प्रश्न ७४ : प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत दशा नामक क्रमश: छठवें
और सातवें गुणस्थान का अंतर स्पष्ट कीजिए। उत्तर : यद्यपि ये दोनों ही दशाएँ अंतर्बाह्य भावलिंग और द्रव्यलिंग सम्पन्न मुनिराज की ही हैं; तथापि इन दोनों में पारस्परिक कुछ अंतर भी ---- - तत्त्वज्ञान विवेचिका भाग २/१८२
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