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प्रकृष्टरूप से रहित हो जाने के कारण पुनः उससे कभी भी सहित नहीं होंगे; पुन: संसार में लौटकर नहीं आएंगे - यह बताने के लिए 'णिरंजणा - निरंजन / भाव कर्म से रहित' विशेषण दिया है।
४. सांसारिक सभी दशाएँ क्षणिक विकार की प्रतिफल होने से क्षणिक होती हैं; परन्तु सिद्ध दशा शाश्वत स्वभाव का अवलम्बन लेकर व्यक्त हुई होने से परम्परा की अपेक्षा सादि - अनंत, नित्य है; क्षणिक नहीं है - यह बताने के लिए 'णिच्चा - नित्य' विशेषण दिया है।
५. यद्यपि परमात्मा-दशा में क्षायोपशमिक बुद्धि आदि गुणों का अभाव हो जाता है; तथापि क्षायिक ज्ञान-दर्शन आदि सभी गुण पूर्णतया शुद्ध हो जाते हैं; परमात्मा गुणों से रहित नहीं हैं; वरन् अवगुणों से रहित हैं - यह बताने के लिए 'अट्ठगुणा - आठ गुण सम्पन्न' विशेषण दिया है। ६. स्थाईत्व के साथ परिणमन-सम्पन्न अनंत वैभववान वस्तु-स्वभाव के कारण पर में हस्तक्षेप की आवश्यकता नहीं होने से तथा अपना वैभव पर्याय में प्रगट कर उसका भोगोपभोग करते होने से सिद्ध भगवान पूर्णतया कृतकृत्य हैं; उन्हें कुछ भी कार्य करना शेष नहीं रहा है - यह बताने के लिए 'किदकिच्चा - कृतकृत्य' विशेषण दिया है।
७. लोक का द्रव्य लोक में रहता होने से, यहाँ ही रहने की योग्यता होने से, गति में निमित्तभूत धर्मद्रव्य भी लोकाग्र पर्यंत ही होने से वे सिद्ध भगवान लोकाग्र में जाकर ही स्थिर हो जाते हैं; सतत उत्तरोत्तर गमनरूप नहीं हैं - यह बताने के लिए 'लोयग्गणिवासिणो- लोक के अग्र भाग में रहनेवाले' विशेषण दिया है।
इसप्रकार पूर्वोक्त सात मान्यताओं का निराकरण करने के लिए सिद्ध भगवान का स्वरूप इन सात विशेषणों द्वारा स्पष्ट किया है।
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वास्तव में इस सिद्ध दशा का उत्पाद तो इस मनुष्य क्षेत्र में ही होता है; परन्तु तत्काल ही ऊर्ध्वगमन स्वभाव के कारण वे ऋजुगति से समश्रेणी में गमन कर सिद्ध शिला के ऊपर लोकाग्र में विराजमान हो जाते हैं। वहाँ उनका अंतिम शरीर से कुछ कम पुरुषाकार रहता है।
अचल, अनुपम-दशा-सम्पन्न तथा संसारी जीवों को साध्यभूत आत्मा का स्वरूप बताने के लिए प्रतिच्छंद - स्थानीय ये सिद्ध भगवान द्रव्यचतुर्दश गुणस्थान / १८१