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________________ नीय, आयुष्क, नाम, गोत्र और अंतराय - इन आठ प्रकार के द्रव्यकर्मों से पूर्णतया रहित हैं । बारहवें क्षीणमोह गुणस्थान में मोहनीय कर्म के पूर्णतया क्षय की निमित्तता में पूर्ण सुख व्यक्त हुआ था; क्रमश: सयोग केवली और अयोग केवली नामक तेरहवें और चौदहवें गुणस्थान में चारों घाति कर्मों के अभाव की निमित्ततावाला अनंतसुख था; यहाँ शेष रहे चारों अघाति कर्मों का भी अभाव हो जाने से अव्याबाध सुख व्यक्त हुआ है। अपने स्वभाव में परिपूर्ण स्थिरता के कारण तथा मोहादि करने का कोई भी कारण शेष नहीं रहने से वे मोहादि अंजन से रहित निरंजन हैं। चतुर्गति-भ्रमणरूप पंच परावर्तनों का पूर्णतया अभाव हो जाने से परम्परा की अपेक्षा संसार का पुन: उत्पाद - रहित व्यय और सिद्ध दशा का पुनः व्यय-रहित उत्पाद हो जाने के कारण वे सादि-अनंत काल पर्यंत इसी दशा में रहने रूप नित्य हैं। क्रमशः आठ कर्मों के अभाव - निमित्तक व्यक्त हुए ज्ञान, दर्शन, अव्याबाध, सम्यक्त्व, अवगाहनत्व, सूक्ष्मत्व, अगुरुलघु और वीर्य रूप मुख्य आठ गुणों सहित अनंतानंत गुणों से वे युक्त हैं। सम्पूर्ण इष्ट/समग्र स्वात्मा की परिपूर्ण उपलब्धि व्यक्त हो जाने से तथा समस्त अनिष्ट/मोहादि सभी दुःख पूर्णतया नष्ट हो जाने से ; करने योग्य कार्य कर लिया होने से वे कृत-कृत्य हैं। त्रिभुवन चूड़ामणिमय सर्वोत्कृष्ट दशा प्राप्त कर लेने के कारण वे लोकाग्रनिवासी हैं। यद्यपि सिद्ध भगवान अनंत अनंत विशेषताओं सहित हैं: तथापि उनमें से यहाँ मात्र उपर्युक्त सात विशेषणों द्वारा उनका स्वरूप स्पष्ट किया गया है। इसका कारण बताते हुए वे ही वहीं लिखते हैं - " सदसिवसंखो मक्कड, बुद्धो णेयाइयो य वेसेसी । ईसरमंडलिदंसणविदूसणट्ठ कयं एदं ।। ६९ ।। सदाशिव, सांख्य, मस्करी, बौद्ध, नैयायिक - वैशेषिक, ईश्वरवादी, और मण्डली - इन सात मतों के निराकरण के लिए ये सात विशेषण दिए गए हैं। " मोक्ष के संबंध में इन सात मतों की मान्यताएँ संक्षेप में इसप्रकार हैंचतुर्दश गुणस्थान / १७९
SR No.007197
Book TitleTattvagyan Vivechika Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalpana Jain
PublisherA B Jain Yuva Federation
Publication Year2008
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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