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________________ रूप क्षायिक चारित्र है । प्रश्न ७१ : अयोग केवली नामक इस चौदहवें गुणस्थान का काल और गमनागमन स्पष्ट कीजिए । उत्तर : इसमें परिणामों आदि की विविधता नहीं होने से ये दोनों ही पूर्ण सुनिश्चित हैं; जो इसप्रकार हैं - काल की अपेक्षा यहाँ जघन्य, उत्कृष्ट आदि भेदों की अपेक्षा से रहित एकमात्र अ, इ, उ, ऋ, लृ – इन पाँच ह्रस्व-स्वरों के उच्चारण प्रमाण अंतर्मुहूर्त काल है। गमनागमन की विवक्षा में गमन की अपेक्षा इनका गमन एकमात्र सिद्ध दशा में ही होता है तथा आगमन एकमात्र सयोगकेवली नामक तेरहवें गुणस्थान से ही होता है। इसप्रकार संसार दशा में रहते हुए मोक्षमार्ग की मुख्यता से उत्तरोत्तर होने वाली दोषों की हीनता और गुणों की वृद्धि की अपेक्षा बनने वाले चौदह गुणस्थानों की चर्चा यहाँ समाप्त हुई। O जिनागम की यह विशेषता है कि इसमें सदा ही जिस प्रकरण को भी चर्चित करते हैं, उसके सद्भाव और अभाव दोनों पर ही विचार किया जाता है। इसी अपेक्षा से यहाँ गुणस्थान की चर्चा के बाद गुणस्थानातीत सिद्ध भगवान की चर्चा नियमत: की जाती है; अत: यहाँ हम भी उन पर दृष्टिपात करते हैं। प्रश्न ७२ : गुणस्थानातीत सिद्ध भगवान का स्वरूप स्पष्ट कीजिए । उत्तर : आचार्यश्री नेमिचंद्र - सिद्धान्त - चक्रवर्ती अपनी कृति गोम्मटसार जीवकाण्ड में गुणस्थानातीत सिद्ध भगवान का स्वरूप स्पष्ट करते हुए लिखते हैं - "अट्ठविहकम्मवियला, सीदीभूदा णिरंजणा णिच्चा । अट्ठगुणा किदकिच्चा, लोयग्गणिवासिणो सिद्धा ॥ ६८ ॥ आठ प्रकार के कर्मों से रहित, अव्याबाध सुखरूपी अमृत का अनुभव करने वाले, भावरूपी अंजन / कालिमा से रहित, नित्य, सम्यक्त्व आदि आठ गुण-सम्पन्न, कृतकृत्य, लोकाग्र निवासी सिद्ध भगवान हैं । " भाव यह है कि सिद्ध भगवान ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोह- तत्त्वज्ञान विवेचिका भाग २ / १७८
SR No.007197
Book TitleTattvagyan Vivechika Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalpana Jain
PublisherA B Jain Yuva Federation
Publication Year2008
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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