________________
प्रश्न ७० : अयोग केवली जिन नामक चौदहवें गुणस्थान का स्वरूप स्पष्ट कीजिए। उत्तर : आचार्यश्री नेमिचंद्र सिद्धान्त-चक्रवर्ती अपने ग्रन्थ गोम्मटसार जीवकांड में इस गुणस्थान का स्वरूप स्पष्ट करते हुए लिखते हैं -
"सीलेसिं संपत्तो, णिरुद्धणिस्सेसआसवो जीवो।
कम्मरयविप्पमुक्को, गयजोगो केवली होदि॥६५॥ (अठारह हजार भेदवाले) शीलों की ईश्वरता को प्राप्त, समस्त आस्रवों के निरोध से सहित, कर्मरूपी रज से विशेषरूप में और प्रकृष्टरूप में मुक्त जीव योग रहित/अयोग केवली हैं।" ___ मुनि दशा संबंधी ८४ लाख उत्तर गुणों और शील संबंधी १८००० भेदों से सहित गुणस्थान के अंतिम समय में ही सम्यक् चारित्र की परिपूर्णता होने से सम्पूर्ण रत्नत्रय-सम्पन्न होने के कारण ये पूर्ण संवर और पूर्ण निर्जरा मय निरास्रवी-निर्बंध दशा संयुक्त हैं। यहाँ ‘अयोग' पद आदि-दीपक होने से ये और गुणस्थानातीत सिद्ध भगवान सदा योग-रहित ही हैं। आत्मस्वरूप में परिपूर्ण स्थिरता की निमित्तता में यहाँ उपान्त्य समय में ७२ और अंत समय में १३ – इसप्रकार शेष रहीं समस्त ८५ कर्मप्रकृतिओं का अभाव हो जाता है। __यह अंतिम गुणस्थान कलंक-सूचक ‘संसारी' विशेषणवाले जीव की अंतिम स्थिति है। इसके बाद सदा-सदा के लिए उनके ‘संसारी' विशेषण का अभाव हो जाएगा। यहाँ योगों का अभाव हो जाने से आत्मा और शरीर का पूर्ववत् एक क्षेत्रावगाही संबंध विद्यमान होने पर भी निमित्त-नैमित्तिक संबंध सापेक्ष सभी क्रियाओं का पूर्णतया अभाव है। व्युपरत-क्रिया-निर्वृत्ति नामक चतुर्थ शुक्लध्यान की पूर्णता होते ही यह एक क्षेत्रावगाही संबंध भी विघटित होकर सदा-सदा के लिए ये अनादि अनंत द्रव्यकर्म, भावकर्म और नोकर्म से पूर्णतया रहित आत्मस्वभाव के समान पर्याय में भी द्रव्यकर्म, भावकर्म और इस नोकर्म से भी पूर्णतया रहित हो जाएंगे।
सम्यक्त्व की अपेक्षा यहाँ तेरहवें गुणस्थान के समान ही परमावगाढ़ रूप क्षायिक सम्यक्त्व है तथा चारित्र की अपेक्षा परम यथाख्यात चारित्र
- चतुर्दश गुणस्थान/१७७ -