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अंतिम अंतर्मुहूर्त में सूक्ष्म-क्रियाप्रतिपाती नामक तृतीय शुक्लध्यान से इस विकृति का अभाव होते ही यह आस्रव भी समाप्त होकर वे इस गुणस्थान के अंतिम समय का व्यय होते-होते पूर्ण निरास्रवी हो जाते हैं। प्रश्न ६७ : संयोगकेवली जिन नामक तेरहवें गुणस्थान के भेद स्पष्ट कीजिए। उत्तर : अनंत चतुष्टयमय वीतरागता-सर्वज्ञता की अपेक्षा तो इसके कोई भी भेद नहीं हैं; परन्तु इस गुणस्थान को प्राप्त करते समय बननेवाली बाह्य परिस्थितिओं, इस गुणस्थान के पूर्वचर-सहचर या उत्तरचर संयोगों की अपेक्षा इसके अनेक भेद हो जाते हैं। उनमें से कुछ इसप्रकार हैं१. उपसर्ग केवली : मुनिदशा में उपसर्ग की स्थिति के समय ध्यानारूढ़ होने पर श्रेणी का आरोहण हो केवलज्ञान प्राप्त करनेवाले, उपसर्ग केवली कहलाते हैं। जैसे पार्श्वनाथ भगवान आदि। २. अंतःकृत केवली : उपसर्ग की स्थिति में श्रेणी का आरोहण कर केवलज्ञान होते ही अंतर्मुहूर्त में ही सिद्ध दशा प्राप्त करनेवाले, अंत:कृत केवली हैं। जैसे गजकुमार, युधिष्ठिर आदि। ३. समुद्घातगत केवली : आयु कर्म की स्थिति कम होने पर तीन अघाति कर्मों की स्थिति को केवली समुद्घात के माध्यम से आयु की स्थिति के समान करनेवाले, समुद्घातगत केवली कहलाते हैं। ४. मूक केवली : केवलज्ञान हो जाने पर भी वाणी के योग से रहित, मूक केवली हैं। ५. पाँच कल्याणकवाले तीर्थंकर केवली : पूर्व भव से ही तीर्थंकर प्रकृति की सत्ता से सहित जीव, पाँच कल्याणकवाले तीर्थंकर केवली कहलाते हैं। जैसे ऋषभदेव आदि तीर्थंकर।। ६. तीन कल्याणकवाले तीर्थंकर केवली : इस अंतिम भव की गृहस्थावस्था में तीर्थंकर प्रकृति का बंध करने से दीक्षा, ज्ञान और निर्वाण कल्याणक-सम्पन्न जीव, तीन कल्याणकवाले केवली कहलाते हैं। ७. दो कल्याणकवाले तीर्थंकर केवली : इस अंतिम भव में मुनिदीक्षा ग्रहण करने के बाद तीर्थंकर प्रकृति का बंध करने से ज्ञान और निर्वाण कल्याणक-सम्पन्न.जीव, दो कल्याणकवाले केवली कहलाते हैं।
- चतुर्दश गुणस्थान/१७५ -