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धर्म-तीर्थ की प्रवृत्ति-हेतु चारों संधिकालों में ६-६ घड़ी - इसप्रकार २४ घंटे में से ९ घंटे ३६ मिनिट पर्यंत निरक्षरी, अस्खलित, अनुपम, निरिच्छक वृत्ति से दिव्य ध्वनि खिरती है; कदाचित् विशिष्ट परिस्थिति में अन्य समयों में भी खिर जाती है । भव्य जीवों के भाग्यवश और केवली के वचनयोग के संयोग में यह दिव्य-ध्वनि का कार्य होता रहता है। उपदेश, विहार आदि क्रियाएँ इस गुणस्थान में एकमात्र कर्मोदय आदि कारणों से निरिच्छक-वृत्ति पूर्वक ही होती हैं।
इस गुणस्थान में तीर्थंकर केवली के 'तीर्थंकर' नामक नामकर्म की सातिशय पुण्य प्रकृति के उदय की निमित्तता में इंद्र की आज्ञा से कुबेर द्वारा तीन लोक में अद्वितीय, आश्चर्यकारी, सर्वोत्कृष्ट सभामंडपरूप में समवसरण की रचना की जाती है। जिसके अंदर बारह सभाओं में एकमात्र नरकगति को छोड़कर शेष तीन गति के भव्य जीव यथास्थान बैठकर सभी प्रकार के भेदभाव से रहित हो आत्मतत्त्व-पोषक धर्मामृत का पान करते हैं ।
अन्य केवलिओं के योग्यतानुसार गंधकुटी की रचना होती है। तीर्थंकर प्रकृति की सत्ता लेकर गर्भ में आने वाले तीर्थंकर जीव की अपेक्षा जन्म संबंधी दश, केवलज्ञान संबंधी दश, देवकृत चौदह - इस प्रकार ३४ अतिशय, आठ प्रातिहार्य और अनंत चतुष्टययुक्त ४६ गुणमय अलौकिक वैभव, सातिशयता का यहाँ सहज संयोग होता है।
तेरहवें और चौदहवें दोनों गुणस्थानवर्ती क्रमशः सयोग और अयोग केवलिओं को शरीर-संयोग के कारण सकल परमात्मा भी कहते हैं। इन दोनों के ही अरिहंत, अरहंत, अरुहंत, परमात्मा, परमज्योति, जिनेन्द्रदेव, आप्त, परमगुरु, जीवन्मुक्त, भावमुक्त, ईषन्मुक्त इत्यादि अनेकों नाम प्रसिद्ध हैं। स्वयं इंद्र इनकी १००८ नामों द्वारा स्तुति करता है।
सम्यक्त्व की अपेक्षा इनके केवलज्ञान की निमित्तता में 'परमावगाढ़' संज्ञा को प्राप्त क्षायिक सम्यक्त्व तथा चारित्र की अपेक्षा परम यथाख्यात चारित्र ही है।
यहाँ एक मात्र योगजन्य विकृति होने से इस सयोग केवली गुणस्थान में भी एकमात्र एक समय का स्थिति - बंधवाला, एकमात्र सातावेदनीय कर्म का ईर्यापथ आस्रव होता है। योग-निरोध के बाद इसी गुणस्थान के तत्त्वज्ञान विवेचिका भाग २ / १७४