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नाशक, प्रगट हुई नव लब्धिओं से समुत्पन्न ‘परमात्मा' संज्ञा को प्राप्त, असहाय/अनंत सामर्थ्य-सम्पन्न ज्ञान-दर्शन से सहित केवली, योग से संयुक्त होने के कारण सयोग जिन हैं - ऐसा अनादि-निधन आर्ष/आगम परम्परा में कहा गया है।" ___ इस गुणस्थान का पूरा नाम सयोग केवली जिन है। इसमें से ‘सयोग केवली' पद का जो विश्लेषण आचार्यश्री वीरसेन स्वामी ने अपनी धवल' नामक टीका में किया है; उसका हिन्दी-सार इसप्रकार है - __“जिसमें इंद्रिय, आलोक, मन आदि की अपेक्षा नहीं है; उसे केवल या असहाय कहते हैं। ऐसा केवल या असहाय ज्ञान जिनके है, उन्हें केवली कहते हैं। मन, वचन और काय की प्रवृत्ति को योग कहते हैं। जो योग के साथ रहते हैं; उन्हें सयोग कहते हैं। इसप्रकार जो सयोग होते हुए केवली हैं; उन्हें सयोगकेवली कहते हैं। ___ इस सूत्र में किया गया ‘सयोग' पद का ग्रहण अंत्य-दीपक होने से नीचे के सभी गुणस्थानों की सयोगता का प्रतिपादक है।"
प्राकृत पंच संग्रह के अनुसार 'पुण्य-पाप कर्मों के बंध में कारणभूत शुभ-अशुभ भावों से रहित होने के कारण 'जिन' हैं। इसका केवली' पद आदि दीपक है अर्थात् यहाँ से पहले के सभी छदस्थ ही थे। __भाव यह है कि अनंत ज्ञान, अनंत दर्शन, अनंत सुख और अनंत वीर्य रूप अनंत चतुष्टय से सम्पन्न ये सयोग केवली जिन परमात्मा अनंत ज्ञान की अबिनाभावी अनंत/केवल/क्षायिक ज्ञान, अनंत/केवल/क्षायिक दर्शन, क्षायिक सम्यक्त्व, क्षायिक चारित्र, क्षायिक दान, क्षायिक लाभ, क्षायिक भोग, क्षायिक उपभोग और क्षायिक वीर्यरूप नव लब्धिओं से सुशोभित होते हैं। पूर्ण वीतरागी, सर्वज्ञ हो जाने से ये सौ इंद्रों से वंदित, देवाधिदेव अरहंतदेव कहलाते हैं। ये क्षुधा, तृषा आदि १८ दोषों से, उपसर्ग-परिषहों से अंतर्बाह्य पूर्णतया रहित होते हैं; अत: कवलाहार, रोग, निहार आदि दशाएँ यहाँ नहीं होती हैं।
'देवत्व' संज्ञा इस दशा को ही प्राप्त होने से कृत्रिम और अकृत्रिम सभी चैत्यालयों में इनके समान ही अन्तरोन्मुखी वृत्ति-सम्पन्न ध्यानस्थ प्रतिमाएँ विराजमान हैं। इस गुणस्थान में स्थित मुख्यतया तीर्थंकर केवली के
- चतुर्दश गुणस्थान/१७३