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बारहवें क्षीणमोह गुणस्थान का गमनागमन तेरहवें सयोग केवली गु. में
गमन
बारहवाँ क्षीणमोह गुणस्थान आगमन दशवें क्षपक सूक्ष्म साम्पराय गु. से प्रश्न ६५ : उपशांतमोह और क्षीणमोह नामक क्रमशः ग्यारहवें - बारहवें गुणस्थानरूप उपशमन और क्षपण के पृथक्-पृथक् गुणस्थान के समान उपशमक अपूर्वकरण, क्षपक अपूर्वकरण आदि रूप में अपूर्वकरण से सूक्ष्म-साम्पराय पर्यंत के भावों को पृथक्-पृथक् गुणस्थान रूप में विभक्त क्यों नहीं किया गया है ?
उत्तर : उपशमक अपूर्वकरण, क्षपक अपूर्वकरण आदि परिणामों में तथा तन्निमित्तक मोहनीय आदि कर्मों के कार्यों में अंतर नहीं होने के कारण, उन परिणामों में समानता बताने के लिए उन्हें पृथक् पृथक् विभक्त नहीं किया गया है।
उपशांत- मोह और क्षीण - मोहरूप भावों में वैसी समानता नहीं होने से तन्निमित्तक मोहनीय कर्म के कार्य में अंतर होने के कारण इन भावों संबंधी गुणस्थानों को पृथक्-पृथक् बताया गया है।
इसप्रकार भावों और तन्निमित्तक कार्यों की पृथक्ता के कारण उपशमक और क्षपक श्रेणी के फलभूत इन उपशांत- मोह और क्षीण - मोह गुणस्थानों को पृथक्-पृथक् और क्रमश: ग्यारहवें - बारहवें स्थान पर रखा गया है। प्रश्न ६६ : सयोग केवली नामक तेरहवें गुणस्थान का स्वरूप स्पष्ट कीजिए ।
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उत्तर : इस गुणस्थान का स्वरूप स्पष्ट करते हुए आचार्य नेमिचंद्रसिद्धान्त - चक्रवर्ती अपने ग्रन्थ गोम्मटसार जीवकाण्ड में लिखते हैं"केवलणाणदिवायर - किरण - कलाबप्पणासियण्णाणो ।
णव- केवल - लधुग्गम, सुजणिय परमप्पववएसो ॥ ६३ ॥ असहाय - णाणदंसणसहिओ इदि केवली हु जोगेण । जुत्तोत्ति सजोगजिणो, अणाइणिहणारिसे उत्तो ॥ ६४॥ केवलज्ञान रूपी सूर्य के किरण-समूह से पूर्णतया अज्ञान - अंधकार के तत्त्वज्ञान विवेचिका भाग २ / १७२