________________
मोह का पूर्णतया क्षय हो जाने से ये जीव ‘मोह-मुक्त' कहलाते हैं। यहाँशुक्लध्यान के एकत्व-वितर्क अवीचार नामक द्वितीय भेदरूप शुद्धोपयोग से शेष रहे तीन घाति कर्मों की प्रति समय उत्तरोत्तर असंख्यात गुणी निर्जरा होती रहती है; जिससे इस गुणस्थान का अंतर्मुहूर्त काल पूर्ण होते ही यहाँ पर्यंत ६३ प्रकृतिओं का अभाव हो वे तेरहवें गुणस्थान में अनंत चतुष्टय-सम्पन्न सयोग-केवली हो जाते हैं।
सम्यक्त्व की अपेक्षा यहाँ एक मात्र क्षायिक सम्यक्त्व ही है। चारित्र की अपेक्षा भी यहाँ एक मात्र क्षायिक यथाख्यात चारित्र ही है।
बंध के मिथ्यादर्शन आदि पाँच कारणों में से यहाँ एक मात्र योग विद्यमान होने से, उसकी निमित्तता में मात्र सातावेदनीय कर्म का, एक समय का स्थिति-बंधवाला ईर्यापथ आस्रव होता है; अन्य किसी भी कर्म का तथा अन्य किसी भी स्थितिवाला बंध यहाँ नहीं होता है। प्रश्न ६३: क्षीणमोह नामक बारहवें गुणस्थान का काल स्पष्ट कीजिए। उत्तर : इस गुणस्थान का काल सुनिश्चित एक अंतर्मुहूर्त है। इसमें मरण तथा अवरोहण नहीं होने के कारण जघन्य, उत्कृष्ट आदि काल-भेद नहीं बनते हैं; तथापि ग्यारहवें की अपेक्षा इसका काल कुछ कम है। अंतर्मुहूर्त के असंख्य भेद होने से यह सभी व्यवस्था बन जाती है। - यदि सूक्ष्मता से विचार किया जाए तो छठवें प्रमत्त-संयत से बारहवें क्षीण-मोह गुणस्थान पर्यंत सभी गुणस्थानों का उत्कृष्ट-काल यथायोग्य अंतर्मुहूर्त होने पर भी उत्तरोत्तर हीन-हीन है तथा सभी का मिलकर भी एक अंतर्मुहूर्त ही होता है। प्रश्न ६४: क्षीणमोह नामक इस बारहवें गुणस्थान का गुणस्थान की अपेक्षा गमनागमन स्पष्ट कीजिए। उत्तर : परिणामों आदि की विविधता नहीं होने से यहाँ के गमनागमन में भी विविधता नहीं है। गमन की अपेक्षा यहाँ से नियमत: सयोग केवली नामक तेरहवें गुणस्थान में ही आरोहण करते हैं तथा आगमन की अपेक्षा यहाँ नियम से क्षपक सूक्ष्म-साम्पराय नामक दशवें गुणस्थान से ही आते हैं। इसे संदृष्टि द्वारा इसप्रकार समझ सकते हैं -
- चतुर्दश गुणस्थान/१७१