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पर भी ज्ञानावरणादि शेष कर्मों की निमित्तता में औदयिक अज्ञान आदि विद्यमान होने से ये छद्मस्थ कहलाते हैं। मोह का पूर्ण क्षय हो जाने से ये पूर्ण सुखी हैं। यहाँ क्षीणमोह' विशेषण आदि-दीपक है अर्थात् ये तथा इससे आगे सभी पूर्णतया मोह से रहित हैं।
ये सर्वोत्कृष्ट अंतरात्मा हैं। यह गुणस्थान मोक्ष-प्राप्ति पर्यंत के काल में एक बार ही प्राप्त होता है। अंतर्मुहूर्त काल पर्यंत के इन वीतरागी भावों में जघन्य, उत्कृष्ट आदि भेद नहीं होते हैं।
इस गुणस्थानवर्ती निर्ग्रन्थ मुनिराज के औदारिक शरीर का परमौदारिक शरीररूपसे परिणमन के लिए इस शरीर के आश्रित रहने वाले अनंत बादर निगोदिया जीवों का मरण इस गुणस्थान के प्रथम समय से लेकर अंतिम समय तक होता रहता है। जिसके परिणाम-स्वरूप इस गुणस्थान के व्यय और तेरहवें गुणस्थान के उत्पाद के समय ही यह शरीर परमौदारिक शरीररूप में परिणमित हो जाता है। इतनी हिंसा हो जाने पर भी उन अहिंसा महाव्रती वीतरागी मुनिराज का अहिंसाव्रत नष्ट नहीं होता है। इस संदर्भ में किए गएआचार्यवीरसेन स्वामी के विश्लेषण का हिन्दी-सार इसप्रकार है"प्रश्न : ये निगोद जीव यहाँ क्यों मरते हैं ? उत्तर : ध्यान द्वारा निगोद जीवों की उत्पत्ति और स्थिति के कारणों का निरोध हो जाने से वे यहाँ मर जाते हैं। प्रश्न : ध्यान द्वारा अनंतानंत जीव-राशि का हनन करनेवाले जीव का निर्वाण कैसे हो सकता है ? उत्तर : अप्रमत्त होने के कारण इतनी हिंसा से भी उनका निर्वाण बाधित नहीं होता है। प्रश्न : हिंसा करनेवाले जीवों के अहिंसा लक्षणयुक्त पाँच महाव्रत कैसे सम्भव हैं ? उत्तर : यह कहना उचित नहीं है; क्योंकि बहिरंग हिंसा से आस्रव नहीं होता है; अत: मारने के भाव से रहित उन शुद्धोपयोगी मुनिराज के शरीर में
अनंतानंत जीवों के मरने पर भी उनके अहिंसा लक्षणयुक्त पाँच महाव्रत विद्यमान हैं।"
- तत्त्वज्ञान विवेचिका भाग २/१७० -