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"णिस्सेसखीणमोहो, फलिहामलभायणुदयसमचित्तो।
खीणकसाओ भण्णदि, णिग्गंथो वीयरायेहिं॥६॥ मोहनीय कर्म के पूर्णतया क्षीण होने की निमित्तता में जिन निर्ग्रन्थ का चित्त स्फटिक के निर्मल पात्र में रखे हुए निर्मल जल के समान अति निर्मल हो गया है; उन्हें वीतरागी देव क्षीण-कषाय कहते हैं।"
इस गुणस्थान का पूरा नाम क्षीण-मोह/कषाय-वीतराग-छद्मस्थ है। इसका जो विश्लेषण आचार्य वीरसेन स्वामी ने अपनी धवल टीका में किया है; उसका हिन्दी-सार इसप्रकार है___ "जिनकी कषायें क्षीण हो गईं हैं, उन्हें क्षीण कषाय कहते हैं। जो क्षीण-कषाय होते हुए वीतराग हैं, उन्हें क्षीण-कषाय-वीतराग कहते हैं। जो छद्म अर्थात् ज्ञानावरण-दर्शनावरण में रहते हैं, उन्हें छद्मस्थ कहते हैं; जो क्षीण-कषाय-वीतराग होते हुए छद्मस्थ हैं, उन्हें क्षीण-कषाय-वीतराग-छद्मस्थ कहते हैं।
इस सूत्र में आया 'छद्मस्थ' पद अंत्य-दीपक है; अत: इसे यहाँ पर्यंत सभी गुणस्थान के सावरणपने का सूचक समझना चाहिए।
यद्यपि क्षीण-कषायी जीववीतरागी ही होते हैं; तथापि नाम, स्थापना और द्रव्य निक्षेपरूप क्षीण-कषाय का निषेध कर भाव-निक्षेपरूप क्षीणकषाय का ग्रहण बताने के लिए सूत्र में पुन: वीतराग' पद का प्रयोग किया गया है।"
भाव यह है कि जैसे स्फटिक-पात्र में रखा हुआ निर्मल जल पुनः मलिन नहीं होता है; उसीप्रकार आत्मा के जिन वीतरागी भावों की निमित्तता में मोहनीय कर्म का पूर्णतया क्षय हो जाने से अब पुन: रागादि उत्पन्न होने की सम्भावना ही नहीं रही है। उन्हें क्षीण-मोह/कषाय-वीतराग-छद्मस्थ कहते हैं।
'वीतराग' पद का शाब्दिक अर्थ है-विगत: राग: यस्मात् स: वीतरागः= जिसमें से राग निकल गया है, वह वीतराग है। यहाँ राग' शब्द द्वेष, मोह, कषाय आदि सम्पूर्ण विकारों का प्रतिनिधि है; अत: उसके अभाव में सभी का अभाव समझ लेना चाहिए। यहाँ क्षायिक वीतरागता हो जाने
- चतुर्दश गुणस्थान/१६९