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है; उसीप्रकार सूक्ष्म कषाय से सहित सूक्ष्म सराग जानना चाहिए।
सूक्ष्म-लोभ का वेदन करता हुआ उपशमक या क्षपक जीव सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थानवर्ती और यथाख्यात चारित्र से कुछ ही कम है।" ___ इस दशा का पूरा नाम सूक्ष्म-साम्पराय-प्रविष्ट-शुद्धि-संयत गुणस्थान है। सूक्ष्म अत्यल्प अनुभाग, साम्पराय-कषाय, प्रविष्ट-प्रकृष्टरूप से विराजमान/विद्यमान, शुद्धि-शुद्धदशा/शुद्धोपयोग से सहित, संयत= सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञान-सम्यक्चारित्र से सहित और अंतरंग-बहिरंग आस्रवों से रहित मुनिराज अर्थात् अत्यल्प अनुभागवाली मात्र सूक्ष्मलोभ कषाय से सहित शुद्धोपयोगमय, सम्यक् रत्नत्रयी मुनिराज सूक्ष्मसाम्पराय-प्रविष्ट-शुद्धि-संयत गुणस्थानवर्ती हैं। ___ अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण संबंधी सभी विशेषताएँ इन परिणामों में भी विद्यमान हैं। यहाँ साम्पराय शब्द अंत्य-दीपक है अर्थात् इससे आगे के सभी गुणस्थान साम्पराय/कषाय रहित, निष्कषायी, वीतरागतासम्पन्न ही हैं।
सम्यक्त्व की अपेक्षा यहाँ द्वितीयोपशमरूप औपशमिक अथवा क्षायिक सम्यक्त्व ही रहता है; क्षायोपशमिक सम्यक्त्व नहीं रहता है। __ चारित्र की अपेक्षा यहाँ मोहनीय की शेष प्रकृतिओं का यथायोग्य अभाव हो जाने पर भी सूक्ष्म-लोभ प्रकृति का उदय होने से वास्तव में क्षायोपशमिक भाव है; परन्तु अतिशीघ्र क्षपक श्रेणीवाले नियम से क्षायिक चारित्र को और मरणरहित दशा में उपशम श्रेणीवाले औपशमिक चारित्र को प्राप्त करनेवाले होने के कारण भावी नैगमनय की अपेक्षा उपचार से क्रमश: क्षायिक चारित्र और औपशमिक चारित्र भी कहा गया है। ____ अति क्षीण अनुभागवाले सूक्ष्म-लोभ के उदय निमित्तक इन भावों से मतिज्ञानावरण, श्रुतज्ञानावरण, अवधिज्ञानावरण, मन:पर्ययज्ञानावरण
और केवलज्ञानावरणरूप ५ ज्ञानावरण; चक्षुदर्शनावरण, अचक्षुदर्शनावरण, अवधिदर्शनावरण और केवलदर्शनावरणरूप ४ दर्शनावरण; दानांतराय, लाभांतराय, भोगांतराय, उपभोगांतराय और वीर्यांतराय रूप ५ अंतराय; उच्च-गोत्ररूप एक गोत्रकर्म और यशस्कीर्तिरूप एक नामकर्म - इसप्रकार कुल १६ कर्म-प्रकृतिओं का बंध होता है।
चतुर्दश गुणस्थान/१६३ -