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________________ प्रश्न ५७ : इस दशवें सूक्ष्म-साम्पराय नामक गुणस्थान के भेदों का स्वरूप स्पष्ट कीजिए। उत्तर : मोहनीय कर्म के उपशमन या क्षपण निमित्तक श्रेणी/वृद्धिंगत वीतरागी भावों की अपेक्षा इस सूक्ष्म-साम्पराय गुणस्थान के भी दो भेद हो जाते हैं - १. उपशमक सूक्ष्म-साम्पराय प्रविष्ट शुद्धि संयत : जिन सूक्ष्मसाम्परायरूप परिणामों की निमित्तता में सूक्ष्म-लोभ का उपशम होता है; उन्हें उपशमक सूक्ष्म-साम्पराय प्रविष्ट शुद्धि संयत कहते हैं। ये क्षायिक और औपशमिक/द्वितीयोपशम सम्यक्त्विओं में से किसी को भी हो सकते हैं। यह श्रेणी के आरोहण और अवरोहण - दोनों ही स्थितिओं में हो सकता है। आयु-क्षय की स्थिति में इसमें मरण भी हो सकता है। __ इसमें क्षायोपशमिक चारित्र के साथ ही उपचार से औपशमिक चारित्र भी कहा गया है। यह एक मुनि-जीवन में श्रेणी-आरोहण-अवरोहण की अपेक्षा दो-दो बार तथा मोक्ष होने पर्यंत के काल में अधिक से अधिक चार-चार बार हो सकता है; इसके बाद नियम से क्षपक दशा हो जाती है। इसमें आयु-क्षय होने पर नियम से देवगति ही प्राप्त होती है। २. क्षपक सूक्ष्म-साम्पराय प्रविष्ट शुद्धि संयत : जिन सूक्ष्म-साम्पराय रूप परिणामों की निमित्तता में सूक्ष्म-लोभ का क्षय होता है; उन्हें क्षपक सूक्ष्म-साम्पराय प्रविष्टशुद्धि संयत कहते हैं। ये मात्र क्षायिक सम्यक्त्विओं के ही होते हैं। यह मात्र श्रेणी-आरोहण की स्थिति में ही होता है। इसमें क्षायोपशमिक चारित्र के साथ ही उपचार से क्षायिक चारित्र भी कहा गया है। यह मोक्ष होने पर्यंत काल में मात्र एक बार ही होता है। इस परिणामवाले नियम से उसी भव में आत्मसाधना पूर्ण कर निर्वाण प्राप्त करते हैं। इसप्रकार श्रेणी की अपेक्षा इस गुणस्थान के दो भेद हैं। प्रश्न ५७ : इस सूक्ष्म-साम्पराय नामक दशवें गुणस्थान का काल स्पष्ट कीजिए। उत्तर : सामान्य से तो इस गुणस्थान का काल अंतर्मुहूर्त ही है; परन्तु परिणामों आदि की विविध विचित्रता के कारण इस काल में भी विविधता तत्त्वज्ञान विवेचिका भाग २/१६४ -ता
SR No.007197
Book TitleTattvagyan Vivechika Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalpana Jain
PublisherA B Jain Yuva Federation
Publication Year2008
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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