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नियम से अपूर्वकरण नामक आठवें गुणस्थान से ही यहाँ आते हैं तथा मात्र उपशम श्रेणीवाले अवरोहित हो दशवें सूक्ष्म-साम्पराय-गुणस्थान से भी यहाँ आते हैं।
इसे हम संदृष्टि द्वारा इसप्रकार समझ सकते हैं - नवमें अनिवृत्तिकरण गुणस्थान का गमनागमन क्षपक श्रेणी की अपेक्षा 'दशवें सूक्ष्मसाम्पराय में
उपशम श्रेणी की अपेक्षा
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नवमाँ अनिवृत्तिकरण
गमन
गमन दशवाँ सूक्ष्मसाम्पराय
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↓
नवमाँ अनिवृत्तिकरण
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आगमन
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↓ ↑
आग आठवें अपूर्वकरण से मरणोपरांत चौथा अ.स. अपूर्वकरण प्रश्न ५५ : अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरणरूप परिणाम पहले मिथ्यात्व गुणस्थान के अंत में करणलब्धि के समय भी हुए थे, यथायोग्य अन्य गुणस्थानों में भी होते हैं; तब फिर उन्हें पृथक् गुणस्थानरूप में क्यों नहीं गिना जाता है; एकमात्र इन्हें ही पृथक् गुणस्थानरूप में क्यों गिना गया है ? उत्तर : जिन परिणामों से कर्मों के बंध, उदय, सत्त्व आदि कम या नष्ट होते हैं, उन्हें ही पृथक् गुणस्थानरूप में गिना जाता है। इन आठवें, नवमें गुणस्थानवर्ती क्रमशः अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरणरूप परिणामों से कर्मों के बंध आदि कम या नष्ट होने के कारण इन्हें पृथक् गुणस्थान में गिना है; परन्तु अन्यत्र होने वाले इन परिणामों से कर्मों के बंध आदि कम या नष्ट नहीं होते हैं; अत: उन्हें पृथक् से गुणस्थानरूप में नहीं गिना गया है। प्रश्न ५६ : दशवें सूक्ष्म-साम्पराय गुणस्थान का स्वरूप स्पष्ट कीजिए । उत्तर : इस गुणस्थान का स्वरूप स्पष्ट करते हुए आचार्यश्री नेमिचंद्र सिद्धान्त-चक्रवर्ती अपने गोम्मटसार जीवकांड ग्रन्थ में लिखते हैं'धुदकोसुंभयवत्थं, होहि जहा सुहमरायसंजुत्तं । एवं सुहमकसाओ, सुहमसरागोत्ति णादव्वो ।। ५८ ।। अणुलोहं वेदंतो, जीवो उबसामगो व खबगो वा । सो सुहमसांपराओ, जहखादेणूणओ किंचि ॥६०॥ जैसे धुला हुआ कौसुंभी/कसूमी वस्त्र सूक्ष्म लालिमा से सहित होता
• तत्त्वज्ञान विवेचिका भाग २ / १६२