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अनिवृत्तिकरणरूप परिणामों की निमित्तता में मोहनीय कर्म की पूर्वोक्त २१ प्रकृतिओं का क्षय होता है; उन्हें क्षपक अनिवृत्तिकरण बादर साम्पराय प्रविष्ट शुद्धि संयत कहते हैं। ये मात्र क्षायिक सम्यक्त्विओं के ही होते हैं। यह मात्र श्रेणी-आरोहण की स्थिति में ही होता है। __इसमें क्षायोपशमिक चारित्र के साथ ही उपचार से क्षायिक चारित्र भी कहा गया है। यह मोक्ष होने पर्यंत के काल में मात्र एकबार ही होता है। इस परिणामवाले नियम से उसी भव में ही आत्मसाधना पूर्ण कर निर्वाण प्राप्त करते हैं। - इसप्रकार श्रेणी की अपेक्षा इस गुणस्थान के दो भेद हैं। प्रश्न ५३ : इस अनिवृत्तिकरण नामक नवमें गुणस्थान का काल स्पष्ट कीजिए। उत्तर : सामान्य से तो इस गुणस्थान का काल यथायोग्य अंतर्मुहूर्त ही है; परन्तु परिणामों आदि की विविध विचित्रता के कारण इस काल में भी विविधता हो जाती है। वह इसप्रकार है
श्रेणी आरोहण-अवरोहण के समय मनुष्यायु के क्षय की स्थिति में इस गुणस्थान का जघन्य-काल एक समय है। इसका उत्कृष्ट-काल यथायोग्य अंतर्मुहूर्त है तथा आयु-क्षय की स्थिति में दो समय से लेकर यथायोग्य अंतर्मुहूर्त के एक समय पूर्व पर्यंत के सभी समय इसके मध्यमकाल-भेद हो सकते हैं। प्रश्न ५४: इस अनिवृत्तिकरण नामक नवमें गुणस्थान का गुणस्थान की अपेक्षा गमनागमन स्पष्ट कीजिए। उत्तर : परिणामों आदि की विविध विचित्रता के कारण इसके गमनागमन में भी विविधता है। जो इसप्रकार हैगमन की अपेक्षा : श्रेणी-आरोहण की स्थिति में दोनों ही श्रेणी वाले नियम से सूक्ष्म-साम्पराय नामक दशवें गुणस्थान में ही गमन करते हैं। उपशम श्रेणीवाले मुनिराज अवरोहण के समय अपूर्वकरण नामक आठवें गुणस्थान में तथा आयु-क्षय की स्थिति में सीधे चौथे अविरत सम्यक्त्व गुणस्थान में गमन करते हैं। आगमन की अपेक्षा : श्रेणी-आरोहण की अपेक्षा दोनों ही श्रेणी वाले
-- चतुर्दश गुणस्थान/१६१