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सम्यक्त्व की अपेक्षा यहाँ द्वितीयोपशमरूप औपशमिक अथवा क्षायिक सम्यक्त्व ही रहता है; क्षायोपशमिक सम्यक्त्व नहीं रहता है। ___ चारित्र की अपेक्षा यहाँ मिथ्यात्व, अनंतानुबंधी, अप्रत्याख्यानावरण
और प्रत्याख्यानावरण का यथायोग्य अभाव तथा संज्वलन और शेष रहीं नो कषायों का क्रमश: रूपांतरणरूप मंदतम उदय होने से वास्तव में क्षायोपशमिक भाव है; तथापि क्षपक श्रेणीवाले नियम से शीघ्र ही क्षायिक चारित्र को और मरण रहित दशा में उपशम श्रेणीवाले औपशमिक चारित्र को प्राप्त करनेवाले होने के कारण भावी नैगमनय की अपेक्षा उपचार से क्रमशः क्षायिक चारित्र और औपशमिक चारित्र भी कहा गया है। ___ चारित्र-मोहनीय के मदंतम उदय निमित्तक इन भावों से पुरुषवेद; संज्वलन-क्रोध, मान, माया, लोभरूप चारित्र-मोहनीय की पाँच प्रकृतिओं का बंध होता है। प्रश्न ५२:अनिवृत्तिकरण नामक इस नवमें गुणस्थान के भेदों का स्वरूप स्पष्ट कीजिए। उत्तर : मोहनीय कर्म के उपशमन या क्षपण निमित्तक श्रेणी/वृद्धिंगत वीतरागी भावों की अपेक्षा इसके भी दो भेद हो जाते हैं - १. उपशमक अनिवृत्तिकरण बादर साम्पराय प्रविष्ट शुद्धि संयत : जिन अनिवृत्तिकरणरूप परिणामों की निमित्तता में मोहनीय कर्म की पूर्वोक्त २१ प्रकृतिओं का उपशम होता है; उन्हें उपशमक अनिवृत्तिकरण बादर साम्पराय प्रविष्ट शुद्धि संयत कहते हैं। ये क्षायिक और औपशमिक/ द्वितीयोपशम सम्यक्त्विओं में से किसी के भी हो सकते हैं। यह श्रेणी के आरोहण और अवरोहण - दोनों ही स्थितिओं में हो सकता है। आयुक्षय की स्थिति में इसमें मरण भी हो सकता है।
इसमें क्षायोपशमिक चारित्र के साथ ही उपचार से औपशमिक चारित्र भी कहा गया है। यह एक मुनि जीवन में श्रेणी आरोहण-अवरोहण की अपेक्षा दो-दो बार तथा मोक्ष होने पर्यंत के काल में अधिक से अधिक चार-चार बार हो सकता है; इसके बाद नियम से क्षपक दशा हो जाती है। इसमें आयु-क्षय होने पर नियम से देवगति ही प्राप्त होती है। २. क्षपक अनिवृत्तिकरण बादर साम्पराय प्रविष्ट शुद्धिसंवत : जिन
- तत्त्वज्ञान विवेधिका भाग २/१०