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अग्नि की शिखाओं द्वारा कर्मरूपी वन को भस्म कर देते हैं । "
इस दशा का पूरा नाम अनिवृत्तिकरण - बादर-साम्पराय-प्रविष्टशुद्धि - संयत गुणस्थान है। अनिवृत्ति शब्द का जो विश्लेषण आचार्य वीरसेन स्वामी ने अपनी धवल टीका में किया है, उसका हिन्दी - सार इसप्रकार है- " समान समयवर्ती जीवों के परिणामों की भेदरहित वृत्ति को निवृत्ति कहते हैं अथवा निवृत्ति शब्द का अर्थ व्यावृत्ति भी है। जिन परिणामों की निवृत्ति अर्थात् व्यावृत्ति नहीं होती है; उन्हें अनिवृत्तिकरण कहते हैं।"
बादर=स्थूल, साम्पराय= कषाय; प्रविष्ट = प्रकृष्टरूप से विराजमान / विद्यमान शुद्धि = शुद्ध दशा / शुद्धोपयोग से सहित; संयत = सम्यग्दर्शनसम्यग्ज्ञान-सम्यक्चारित्र से सहित और अंतरंग-बहिरंग आस्रवों से रहित मुनिराज अर्थात् भेद रहित परिणामों से युक्त, स्थूल कषाय सहित, शुद्धोपयोगमय, सम्यक् रत्नत्रयी मुनिराज अनिवृत्तिकरण-बादर-साम्परायप्रविष्ट -शुद्धि-संयत गुणस्थानवर्ती कहलाते हैं।
इसमें प्रतिसमयवर्ती परिणाम पूर्णतया सुनिश्चित होने से समान समयवर्ती जीवों के परिणाम सुनिश्चित समान और भिन्न समयवर्ती जीवों के परिणाम पूर्णतया सुनिश्चित असमान ही होते हैं। यहाँ प्रतिसमयवर्ती परिणामों में जघन्य, मध्यम, उत्कृष्ट का भी भेद नहीं होता है।
इसमें अपूर्वकरण के समान गुण श्रेणी निर्जरा आदि चारों आवश्यक होते हैं। हजारों स्थिति खंडन आदि के माध्यम से अनिवृत्तिकरण के पूर्व पाए जाने वाले पूर्व स्पर्धक अनिवृत्तिकरण के कारण अनुभाग की अनंत - गुणी क्षीणता को प्राप्त अपूर्व-स्पर्धकरूप और अपूर्व - स्पर्धक इनसे भी अनंतगुणी क्षीणता वाले अनुभाग युक्त बादर कृष्टिरूप होकर इस गुणस्थान के अंतिम समय तक आते-आते बादर कृष्टि से भी अनंतगुणी क्षीणता वाले अनुभाग युक्त सूक्ष्म - कृष्टिरूप हो जाते हैं अर्थात् चारित्र मोहनीय की पूर्वोक्त २१ प्रकृतिओं में से परस्पर संक्रमित होते-होते इसके अंतिम समय में मात्र सूक्ष्म लोभरूप एक ही प्रकृति शेष रह जाती है।
इस गुणस्थान के नाम में आया ‘बादर साम्पराय' पद अंत्य दीपक हैं अर्थात् यहाँ पर्यंत के सभी गुणस्थानों में स्थूल कषाय ही थी। चतुर्दश गुणस्थान/१५९