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गमन
में भी विविधता है। जो इसप्रकार है - गमन की अपेक्षा :श्रेणी आरोहण की स्थिति में दोनों ही श्रेणी वाले नियम से अनिवृत्तिकरण नामक नवमें गुणस्थान में ही गमन करते हैं। उपशम श्रेणीवाले मुनिराज अवरोहण के समय अप्रमत्तसंयत नामक सातवें गुणस्थान में गमन करते हैं तथा इसी स्थिति वाले मरण की अपेक्षा सीधे चौथे अविरत सम्यक्त्व गुणस्थान में गमन करते हैं। आगमन की अपेक्षा - दोनों ही श्रेणीवाले आरोहण की अपेक्षा एकमात्र अप्रमत्तसंयत नामक सातवें गुणस्थान से ही यहाँ आते हैं तथा मात्र उपशम श्रेणीवाले अवरोहित हो, नवमें अनिवृत्तिकरण से भी इसमें आते हैं। इसे हम संदृष्टि द्वारा इसप्रकार समझ सकते हैं -
आठवें अपूर्वकरण गुणस्थान का गमनागमन क्षपक श्रेणी की अपेक्षा उपशम श्रेणी की अपेक्षा
→नवमें अनिवृत्तिकरण में नवमाँ अनिवृत्तिकरण गुणस्थान | आठवाँ अपूर्वकरण E आठवाँ अपूर्वकरण । आगमन सातवें अप्रमत्तसंयत से मरणोपरांत चौथे में अप्रमत्तसंयत से प्रश्न ५१ : अनिवृत्तिकरण नामक नवमें गुणस्थान का स्वरूप स्पष्ट कीजिए। उत्तर : आचार्य नेमिचंद्र-सिद्धान्त-चक्रवर्ती अपने गोम्मटसार जीवकाण्ड ग्रन्थ में इसका स्वरूप और कार्य बताते हुए लिखते हैं - “एकम्हि कालसमये, संठाणादीहिं जह णिवटेति ।
ण णिवटेंति तहावि य, परिणामेहिं मिहो जेहिं ॥५६॥ होति अणियट्टिणो ते, पडिसमयं जेस्सिमेक्कपरिणामा। विमलयरझाणहुयवहसिहाहिं णिद्दड्ढकम्मवणा ॥५७॥
जैसे एक ही काल में एक समयवर्ती जीव संस्थान/शरीर के आकार आदि की अपेक्षा निवर्तित/भिन्न-भिन्न होते हैं; उसीप्रकार जिन परिणामों से परस्पर में निवर्तित/ भेद को प्राप्त नहीं हैं; उन्हें अनिवृत्तिकरण कहते हैं। प्रतिसमयवर्ती एक-एक ही होनेवाले ये परिणाम अत्यंत निर्मल ध्यानरूपी
- तत्त्वज्ञान विवेचिका भाग २/१५८ --