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इसमें क्षायोपशमिक चारित्र के साथ ही उपचार से औपशमिक चारित्र भी कहा गया है। यह एक मुनि-जीवन में श्रेणी आरोहण-अवरोहण की अपेक्षा दो-दो बार तथा मोक्ष होने पर्यंत के काल में अधिक से अधिक चार-चार बार हो सकता है; इसके बाद नियम से क्षपक अपूर्वकरण प्रविष्ट शुद्धि संयत दशा ही हो जाती है। इसमें आयु-क्षय होने पर नियम से देवगति ही प्राप्त होती है। २.क्षपक अपूर्वकरण प्रविष्ट शुद्धि संयत : जिन अपूर्वकरण रूप परिणामों की निमित्तता में मोहनीय की उन २१ प्रकृतिओं का क्षय होता है; उन्हें क्षपक अपूर्वकरण प्रविष्ट शुद्धि संयत कहते हैं। ये मात्र क्षायिक सम्यक्त्विओं के ही होते हैं। यह मात्र आरोहण की स्थिति में ही होता है। _इसमें भी क्षायोपशमिक चारित्र के साथ ही उपचार से क्षायिक चारित्र भी कहा गया है। यह मोक्ष होने पर्यंत के काल में मात्र एक बार ही होता है। इस परिणामवाले नियम से उसी भव में ही आत्म-साधना पूर्ण कर निर्वाण प्राप्त करते हैं।
इसप्रकार श्रेणी की अपेक्षा इस गुणस्थान के दो भेद हैं। प्रश्न ४९ : इस अपूर्वकरण नामक आठवें गुणस्थान का काल स्पष्ट कीजिए। उत्तर : सामान्य से तो इस गुणस्थान का काल अंतर्मुहूर्त ही है; परन्तु परिणामों आदि की विविध विचित्रता के कारण इस काल में भी विविधता हो जाती है। वह इसप्रकार है___ अवरोहण के समय मनुष्यायु के क्षय की स्थिति में इसका जघन्यकाल मात्र एक समय है। आरोहण के समय उपशम श्रेणी वाले का भी पहले भाग में मरण नहीं होने के कारण उस स्थिति में जघन्य-काल एक समय नहीं बनता है। उत्कृष्ट-काल यथायोग्य अंतर्मुहूर्त है। उपशम श्रेणी वाले के आयु-क्षय की स्थिति में दो समय से लेकर यथायोग्य अंतर्मुहूर्त के एक समय पूर्व पर्यंत के सभी समय मध्यम-काल-भेद हो सकते हैं। प्रश्न ५० : इस अपूर्वकरण नामक आठवें गुणस्थान का गुणस्थान की अपेक्षा गमनागमन स्पष्ट कीजिए। मसर : परिणाम आदि की विविधता-विचित्रता के कारण इसके गमनागमन
- चतुर्दश गुणस्थान/१५७ -- --