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________________ णिद्दापयले नटे, सदि आउ उबसमंति उबसमया। खबयं दुक्के खबया, णियमेण खबंति मोहं तु ॥५५।। अज्ञान-अंधकार से सर्वथा रहित जिनेन्द्रदेव ने कहा है कि उन परिणामों में स्थित ये अपूर्वकरण गुणस्थानवी जीव मोहनीय की शेष प्रकृतिओं का क्षपण या उपशमन करने में उद्यत रहते हैं। निद्रा और प्रचला नष्ट हो जाने के बाद आयु शेष रहने पर उपशम श्रेणी का आरोहण करने वाले नियम से मोह का उपशम करते हैं और क्षपक श्रेणी का आरोहण करनेवाले उसका क्षय करते हैं।" संज्वलन और नोकषाय के मंदतर उदय निमित्तक इन भावों से इस गुणस्थान के पहले भाग पर्यंत निद्रा और प्रचलारूप दो दर्शनावरण कर्म प्रकृतिओंका; छठवें भाग पर्यंत तीर्थंकर प्रकृति, निर्माण, प्रशस्त-विहायोगति, पंचेन्द्रिय जाति, तैजस, कार्मण, आहारक शरीर, आहारक शरीर अंगोपांग, समचतुरस्र संस्थान, देवगति, देवगत्यानुपूर्वी, वैक्रियिक शरीर, वैक्रियिक शरीर अंगोपांग, वर्ण, गंध, रस, स्पर्श, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छ्वास, त्रस, बादर, पर्याप्ति, प्रत्येक, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेयरूप नामकर्म की तीस प्रकृतिओं का तथा इसके सातवें भाग पर्यंत हास्य, रति, भय और जुगुप्सारूप मोहनीय कर्म की चार प्रकृतिओं का - इसप्रकार कुल ३६ प्रकृतिओं का बंध होता है। प्रश्न ४८ : इस अपूर्वकरण नामक आठवें गुणस्थान के भेदों का स्वरूप स्पष्ट कीजिए। उत्तर : मोहनीय कर्म के उपशमन या क्षपण निमित्तक श्रेणी/वृद्धिंगत वीतरागी भावों की अपेक्षा इस अपूर्वकरण गुणस्थान के भी दो भेद हैं - १. उपशमक अपूर्वकरण प्रविष्ट शुद्धि संयत : जिन अपूर्वकरण रूप परिणामों की निमित्तता में मोहनीय की अप्रत्याख्यानावरण आदि २१ प्रकृतिओं का उपशम होता है; उन्हें उपशमक अपूर्वकरण प्रविष्ट शुद्धि संयत कहते हैं। ये क्षायिक और औपशमिक/द्वितीयोपशम सम्यक्त्विओं में से किसी के भी हो सकते हैं। यद्यपि इसके पहले भाग में नियम से मरण नहीं होता है; तथापि आयु-क्षय की स्थिति में अन्य भागों में मरण हो सकता है। यह आरोहण और अवरोहण – दोनों ही स्थितिओं में होता है। - तत्त्वज्ञान विवेचिका भाग २/१५६ -
SR No.007197
Book TitleTattvagyan Vivechika Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalpana Jain
PublisherA B Jain Yuva Federation
Publication Year2008
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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