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________________ इस गुणस्थान के अंतर्मुहर्त काल में उत्तरोत्तर प्रतिसमय क्रम से बढ़ते हुए असंख्यात लोक प्रमाण अपूर्व परिणाम होते हैं। इसमें नियम से अनुकृष्टि रचना नहीं होती है।" इस दशा का पण नाम अपूर्वकरण-प्रविष्ट-शुद्धि-संयत गुणस्थान है। अपूर्व-पहले कभी नहीं हुए; करण परिणाम; प्रविष्ट-प्रकृष्टरूपसे विराजमान/विद्यमान; शुद्धि-शुद्ध दशा/शुद्धोपयोग से सहित; संयत सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञान-सम्यक्चारित्र से सहित और अंतरंग-बहिरंग आस्रवों से रहित मुनिराज अर्थात् पहले कभी भी प्राप्त नहीं हुए परिणामों से सम्पन्न शुद्धोपयोगमय, सम्यक् रत्नत्रयी मुनिराज अपूर्वकरण प्रविष्ट शुद्धि संयत गुणस्थानवर्ती कहलाते हैं। ____ इस गुणस्थान में भिन्न समयवर्ती जीवों के परिणाम पूर्णतया भिन्नभिन्न होने से अनुकृष्टि रचना नहीं होती है। यहाँ अधःप्रवृत्त करण में होने वाले चारों आवश्यक तो होते ही हैं; इनके साथ ही इस गुणस्थान संबंधी १. गुणश्रेणी निर्जरा, २. गुण संक्रमण, ३. स्थिति खंडन और ४. अनुभाग खंडन - ये चार आवश्यक भी नियम से होते हैं। सम्यक्त्व की अपेक्षा यहाँ द्वितीयोपशमरूप औपशमिक अथवा क्षायिक सम्यक्त्व ही रहता है; क्षायोपशमिक सम्यक्त्व नहीं रहता है। चारित्र की अपेक्षा यहाँ मिथ्यात्व, अनंतानुबंधी, अप्रत्याख्यानावरण और प्रत्याख्यानावरण का यथायोग्य अभाव तथा संज्वलन और नो कषायों का मंदतर उदय होने से वास्तव में क्षायोपशमिक भाव है; परन्तु क्षपक श्रेणी वाले नियम से शीघ्र ही क्षायिक चारित्र को और मरणरहित दशा में उपशम श्रेणी वाले औपशमिक चारित्र को प्राप्त करने वाले होने के कारण भावी नैगमनय की अपेक्षा उपचार से क्रमश: क्षायिक चारित्र और औपशमिक चारित्र भी कहा गया है। इसे ही आचार्यश्री नेमिचंद्र-सिद्धान्त-चक्रवर्ती वहीं इन अपूर्वकरण परिणामों के फल के रूप में इसप्रकार व्यक्त करते हैं - __“तारिसपरिणामट्ठियजीवा हु जिणेहिंगलियतिमिरेहि। - मोहस्सपुव्वकरणा, खबणुबसमणुज्जया भणिया॥५४॥ - चतुर्दश गुणस्थान/१५५
SR No.007197
Book TitleTattvagyan Vivechika Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalpana Jain
PublisherA B Jain Yuva Federation
Publication Year2008
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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