SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 159
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कर लेते हैं। छठवें प्रमत्त-संयत गुणस्थानवर्ती मुनिराज तो अपने पुरुषार्थ द्वारा इसे प्राप्त करते ही रहते हैं। नियम से पुरुषार्थ की हीनता आदि की स्थिति में उपशम श्रेणी से च्युत होने पर आठवें अपूर्वकरण गुणस्थानवर्ती मुनिराज भी अवरोहित हो इसे प्राप्त होते हैं। इस सम्पूर्ण गमनागमन को संदृष्टि द्वारा इसप्रकार समझ सकते हैं - सातवें अप्रमत्तसंयत गुणस्थान का गमनागमन आठवें उपशमक-क्षपक में -आठवें उपशमक से आगमन | सातवें अप्रमत्तसंयत से सातवें अप्रमत्तसंयत में| छठवें प्रमत्त में - छठवें प्रमत्त से- ! द्रव्यलिंगी ।मुनि । मरणापरात चाथ पाँचवें देशविरत से चौथे अ. पहले . अ.स. में स.से मिथ्यात्वसे प्रश्न ४७:अपूर्वकरण गुणस्थान नामक आठवें गुणस्थान का स्वरूप स्पष्ट कीजिए। उत्तर : प्रतिसमय शुद्ध होते हुए अंतर्मुहूर्त कालवाले अध:प्रवृत्त-करण को व्यतीत कर प्राप्त होने वाले अपूर्वकरण का स्वरूप बताते हुए आचार्यश्री नेमिचंद्र-सिद्धान्त-चक्रवर्ती गोम्मटसार जीवकांड ग्रन्थ में लिखते हैं - “एदम्हि गुणट्ठाणे विसरिससमयट्ठियेहिं जीवहिं। पुव्वमपत्ता जम्हा, होंति अपुव्वा हु परिणामा॥५१॥ भिण्णसमयट्ठियेहिंदु, जीवेहिंण होदि सव्वदा सरिसो। करणेहिं एक्कसमयट्ठियेहिं सरिसो विसरिसो वा ॥५२॥ अंतोमुत्तमेते, पडिसमयमसंखलोगपरिणामा। . कमउड्ढापुव्वगुणे, अणुकट्टी णत्थि णियमेण ॥५३॥ इस गुणस्थान में पहले कभी भी प्राप्त नहीं हुए अपूर्व परिणामों को ही भिन्न समयवर्ती जीव प्राप्त करते हैं; अत: इन्हें अपूर्व-करण कहते हैं। इसमें भिन्न समयवर्ती जीवों के परिणाम विशुद्धि की अपेक्षा कभी भी समान नहीं होते हैं; परन्तु एक समयवर्ती जीवों के परिणाम उस विशुद्धि की अपेक्षा समान और असमान – दोनों प्रकार के होते हैं।... - तत्त्वज्ञान विवेचिका भाग २/१५४
SR No.007197
Book TitleTattvagyan Vivechika Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalpana Jain
PublisherA B Jain Yuva Federation
Publication Year2008
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy