SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 158
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६. इसमें मरण हो सकता है। ७. यह एक भव के मुनि जीवन में अनेकों बार होता रहता है । ८. इसमें अनंतगुणी विशुद्धि आदि चार आवश्यक नहीं होते हैं। इसमें मरण नहीं होता है। यह अनेकों बार नहीं होता है; इसकी संख्या सीमित है। इसमें अनंतगुणी विशुद्धि आदि ९. इसमें अनुकृष्टि रचना नहीं है। चार आवश्यक होते हैं । इसमें अनुकृष्टि रचना होती है इत्यादि अनेक प्रकार से इन दोनों में पारस्परिक अंतर है। प्रश्न ४५ : अप्रमत्त-संयत नामक सातवें गुणस्थान का काल बताइए। उत्तर : सामान्य से इसका काल यथायोग्य अंतर्मुहर्त है; तथापि भावों की विविध विचित्रता से उसके अनेक भेद हो जाते हैं। वे इसप्रकार हैं मनुष्य आयु के क्षय की अपेक्षा इसका जघन्य - काल एक समय है; इन परिणामों की अपेक्षा उत्कृष्ट-काल अंतर्मुहूर्त है तथा दो समय से लेकर यथायोग्य अंतर्मुहूर्त में से एक समय कम पर्यंत सभी समय-भेद इसके मध्यम-काल हैं। की प्रश्न ४६ : अप्रमत्तसंयत नामक सातवें गुणस्थान का गुणस्थान अपेक्षा गमनागमन स्पष्ट कीजिए ।. उत्तर : परिणामों आदि की विविधता के कारण गुणस्थान की अपेक्षा इसके गमनागमन में भी विविधता है । जो इसप्रकार है - गमन की अपेक्षा : सातिशय अप्रमत्त-संयत मुनिराज का आत्मोन्मुखी अपूर्व पुरुषार्थ द्वारा आरोहण मात्र आठवें अपूर्वकरण गुणस्थान में ही होता है । पुरुषार्थ की हीनता वश अवरोहण की स्थिति में प्रमत्त-संयत नामक छठवें गुणस्थान में गमन होता है। शुद्धोपयोगमय इस गुणस्थान में मरण होने पर विग्रह गति के काल में उन मुनिराज का अविरत सम्यक्त्व नामक चौथा गुणस्थान हो जाता है। आगमन की अपेक्षा : सादि या अनादि मिथ्यादृष्टि आत्मोन्मुखी पुरुषार्थ द्वारा आरोहण कर इस गुणस्थान को प्राप्त कर लेता है । कोई चौथे या पाँचवें गुणस्थानवर्ती द्रव्यलिंगी मुनिराज भी आत्मोन्मुखी पुरुषार्थ द्वारा इसे प्राप्त चतुर्दश गुणस्थान / १५३
SR No.007197
Book TitleTattvagyan Vivechika Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalpana Jain
PublisherA B Jain Yuva Federation
Publication Year2008
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy