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________________ अनुपशमक या अक्षपक अर्थात् उपशम या क्षपक श्रेणी का आरोहण नहीं करने वाले, सम्पूर्ण प्रमादों से रहित, व्रत- गुण और शील से सुसज्जित, ध्यान -लीन ज्ञानी स्वस्थान अप्रमत्त - संयत हैं । " ये प्रति अंतर्मुहूर्त - अंतर्मुहूर्त में छठवें सातवें में ही झूलते रहते हैं। २. सातिशय अप्रमत्त - संयत: इसका स्वरूप बताते हुए वे वहीं लिखते हैं - 'इगवीसमोहखबणुबसमणणिमित्ताणि तिकरणाणि तहिं । पढमं अधापवत्तं करणं तु करेदि अपमत्तो ॥ ४७॥ अप्रत्याख्यानावरण-प्रत्याख्यानावरण-संज्वलन संबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ और नौ नो कषायें - इन मोहनीय कर्म की २१ प्रकृतिओं के क्षपण या उपशमन में निमित्त तीन करण हैं । उनमें से प्रथम अधःप्रवृत्त करण को करने वाला सातिशय अप्रमत्त-संयत कहलाता है । " ये चढ़ते समय नियम से अगले ही क्षण आठवें गुणस्थान को प्राप्त कर लेते हैं। यद्यपि ये दोनों एक अप्रमत्त-संयत गुणस्थानवर्ती ही हैं; तथापि इनमें कुछ पारस्परिक अंतर भी है। वह इसप्रकार है - स्वस्थान अप्रमत्त - संयत सातिशय अप्रमत्त - संयत 9 १. इस दशा से मुनिराज छठवें गुण- इससे वे छठवें में नहीं आते हैं। स्थान में आ सकते हैं। चढ़ते समय आठवें में जाते हैं। | इसमें अधः प्रवृत्तकरण होता है। इसमें क्षायोपशमिक सम्यक्त्ववाले नहीं होते हैं । ४. इसमें श्रेणी के आरोहण का इसमें श्रेणी - आरोहण का पुरुषार्थ पुरुषार्थ नहीं होता है। होता है। ५. यह अभी इस पंचमकाल में भी यह अभी यहाँ नहीं हो सकता है। होता है। २. इसमें करण नहीं होते हैं। ३. इसमें तीनों सम्यक्त्वों में से कोई सा भी हो सकता है। - तत्त्वज्ञान विवेचिका भाग २ / १५२.
SR No.007197
Book TitleTattvagyan Vivechika Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalpana Jain
PublisherA B Jain Yuva Federation
Publication Year2008
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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