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________________ में से कोई एक रह सकता है; परन्तु सातिशय भाग में औपशमिक (द्वितीयोपशम) या क्षायिक ही रहता है; क्षायोपशमिक नहीं रहता है। चारित्र की अपेक्षा यहाँ क्षायोपशमिक भाव कहा गया है। 'संयत' शब्द के साथ लगा 'अप्रमत्त' विशेषण यहाँ आदि दीपक है; अर्थात् यह और इससे आगे के सभी गुणस्थान अप्रमत्त दशामय ही हैं । यद्यपि इससे आगे के सभी मुनिराज अप्रमत्त संयत ही होते हैं; तथापि उनके साथ अपूर्वकरण आदि विशेषण होने से उन्हें यहाँ ग्रहण नहीं करना है । यहाँ तो उन सभी से भिन्न एकमात्र अप्रमत्त-संयत नामक सातवें गुणस्थानवर्ती मुनिराज ही विवक्षित हैं। बुद्धिपूर्वक शुद्धोपयोगमय दशा होने से एक विवक्षा में यहाँ से ही 'उत्कृष्ट अंतरात्मा' नाम प्राप्त हो जाता है। अन्य विवक्षा में बारहवें गुणस्थानवर्ती मुनिराज को उत्कृष्ट अंतरात्मा कहा जाता है । इसीप्रकार एक विवक्षा में यह चारित्र की अपेक्षा क्षायोपशमिक भाव का और ध्यान की अपेक्षा धर्म्यध्यान का अंतिम गुणस्थान है । अन्य विवक्षा में चारित्र अपेक्षा क्षायोपशमिक भाव और ध्यान की अपेक्षा धर्म्यध्यान- ये दोनों ही दशवें गुणस्थान पर्यंत रहते हैं। - यहाँ विद्यमान संज्वलन चतुष्क और यथायोग्य नो कषाय के उदय निमित्तक विकृत भाव से आयुष्क कर्म की एक देव आयुष्क कर्म प्रकृति का बंध होता है। प्रश्न ४४ : अप्रमत्तसंयत नामक सातवें गुणस्थान के भेदों का स्वरूप बताते हुए उनका पारस्परिक अंतर स्पष्ट कीजिए । उत्तर : अप्रमत्तसंयत नामक सातवें गुणस्थान के श्रेणी - आरोहण की अयोग्यता और योग्यता की अपेक्षा दो भेद हैं- १. स्वस्थान अप्रमत्त और २. सातिशय अप्रमत्त । १. स्वस्थान अप्रमत्त-संयत: इसे निरतिशय अप्रमत्त संयत भी कहते हैं । इसका स्वरूप आचार्य श्री नेमिचंद्र - सिद्धान्त - चक्रवर्ती गोम्मटसार जीवकांड में इसप्रकार लिखते हैं - " णट्ठासेसपमादो, वयगुणसीलोलिमंडिओ णाणी । अणुबसमओ अखबओ, झाणणिलीणो हु अपमत्तो ॥ ४६ ॥ चतुर्दश गुणस्थान / १५१
SR No.007197
Book TitleTattvagyan Vivechika Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalpana Jain
PublisherA B Jain Yuva Federation
Publication Year2008
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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