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________________ छठवें प्रमत्तसंयत गुणस्थान का गमनागमन → सातवें अप्रमत्तसंयत में गमन छठवें प्रमत्तसंयत से सातवें अप्रमत्तसंयत से - पाँचवें देशविरत में चौथे अविरत सम्यक्त्व में औ., क्षायो. स. तीसरे मिश्र में ← औ. सं. दूसरे सासादन में औ., क्षायो. स. पहले मिथ्या. में - प्रश्न ४३ : सातवें अप्रमत्तसंयत गुणस्थान का स्वरूप स्पष्ट कीजिए । उत्तर : सातवें अप्रमत्तसंयत गुणस्थान का स्वरूप स्पष्ट करते हुए आचार्य श्री नेमिचंद्र-सिद्धान्त-चक्रवर्ती अपने गोम्मटसार जीवकांड नामक ग्रन्थ में लिखते हैं छठवें प्रमत्तसंयत में आगमन “संजलणणोकसायाणुदओ मंदो जदा तदा होदि । अपमत्तगुणो तेण य, अपमत्तो संजदो होदि ॥ ४५॥ जब संज्वलन और नो कषाय का मंद उदय होता है, तब अप्रमत्त गुण प्रगट होता है / प्रमाद का अभाव हो जाता है और उससे वे संयत अप्रमत्तसंयत हो जाते हैं। " पूर्वोक्त पंद्रह प्रकार के प्रमादों का व्यक्त या अव्यक्तरूप इस गुणस्थान में विद्यमान नहीं होने से यह अप्रमत्तसंयत कहलाता है। यह तथा इससे आगे के गुणस्थान शुद्धोपयोग दशामय ही होते हैं। यद्यपि दशवें गुणस्थान तक कषाय का अस्तित्व है, तन्निमित्तक औदयिक भाव भी है; उसकी निमित्तता में यथायोग्य कर्मबंध भी होता है; तथापि वह विकृति छद्मस्थ ज्ञान - गोचर नहीं है; मात्र केवलज्ञान-गम्य है; अतः उसे गौणकर इन मुनिराज को शुद्धोपयोगमय आत्मध्यानरूप दशा-सम्पन्न अप्रमत्त ही कहा जाता है। इन भावों से सहित मुनिराज अप्रमत्त-संयमी कहलाते हैं। अप्रमत्तविरत, सामायिक चारित्र इत्यादि इसके दूसरे नाम हैं। सम्यक्त्व की अपेक्षा इसके स्वस्थान भाग पर्यंत औपशमिक, क्षायोपशमिक, क्षायिक 'तत्त्वज्ञान विवेचिका भाग २ / १५०
SR No.007197
Book TitleTattvagyan Vivechika Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalpana Jain
PublisherA B Jain Yuva Federation
Publication Year2008
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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