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मरण की अपेक्षा इस गुणस्थान का जघन्य-काल एक समय है। मनुष्यायु एक समय मात्र की शेष रहते हुए सातवें अप्रमत्त गुणस्थान से यहाँ आने पर इसमें मात्र एक समय रह पाते ही उन मुनिराज का देहावसान हो जाने से, इसका जघन्य-काल एक समय बन जाता है।
यथायोग्य एक अंतर्मुहूर्त काल इस गुणस्थान का उत्कृष्ट काल है तथा एक समय से आगे दो आदि समयों से लेकर यथायोग्य एक अंतर्मुहूर्त से एक समय पहले तक का सम्पूर्ण काल मध्यम - काल कहा जाता है। इसमें भी विशेष यह है कि इस प्रमत्तसंयत गुणस्थान से पतित हो सीधे पहले मिथ्यात्व गुणस्थान में अवरोहण करने वाले मुनि को ही इसका उत्कृष्ट-काल प्राप्त होता है ।
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प्रश्न ४२ : इस प्रमत्तसंयत गुणस्थान का गमनागमन स्पष्ट कीजिए । उत्तर : परिणामों आदि की विविध विचित्रता के कारण इसका गुणस्थानापेक्षा गमनागमन भी विविधता युक्त है; जो इसप्रकार है - गमन की अपेक्षा : आत्मोन्मुखी पुरुषार्थ की तीव्रता में अपना यथायोग्य अंतर्मुहूर्त काल व्यतीत कर इस गुणस्थानवर्ती मुनिराज सातवें अप्रमत्तसंयत गुणस्थान में ही आरोहण करते हैं। इससे आगे आरोहण करने का पुरुषार्थ यहाँ सम्भव नहीं है।
अपने पुरुषार्थ की हीनता आदि वश अवरोहित होने की स्थिति में तीनों ही सम्यक्त्वी यहाँ से पाँचवें देशविरत और चौथे अविरत सम्यक्त्व गुणस्थान में भी जा सकते हैं। औपशमिक और क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टि प्रमत्तसंयत से पतित हो तीसरे सम्यग्मिथ्यात्व और पहले मिथ्यात्व गुणस्थान में भी जा सकते हैं तथा औपशमिक सम्यग्दृष्टि दूसरे सासादन गुणस्थान में भी जा सकते हैं।
आगमन की अपेक्षा : आत्मोन्मुखी पुरुषार्थ की हीनता आदि वश अवरोहित होने की स्थिति में एकमात्र अप्रमत्तसंयत नामक सातवें गुणस्थान से ही यहाँ आगमन होता है; अन्य कहीं से भी यहाँ आगमन नहीं है। इस प्रमत्तसंयत नामक छठवें गुणस्थान के गमनागमन को हम संदृष्टि द्वारा इसप्रकार समझ सकते हैं
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चतुर्दश गुणस्थान / १४९