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________________ इसप्रकार जिनवाणी के माध्यम से हमें साधक दशा में नियम से होने वाले द्रव्य-लिंग और भाव-लिंग को भली-भाँति समझना चाहिए। प्रश्न ४० : गोम्मटसार जीवकांड गाथा ३२ आदि जिनवाणी के अनुसार जब प्रमत्तसंयत गुणस्थान संज्वलन और नो कषाय के उदय की निमित्तता में होता है; तब फिर यहाँ चारित्र का उस संबंधी औदयिक भाव क्यों नहीं कहा गया है ? क्षायोपशमिक भाव क्यों कहा गया है ? उत्तर : इस संदर्भ में आचार्य वीरसेन स्वामी ने अपनी धवल टीका में प्रश्नोत्तर शैली द्वारा मीमांसा की है। उसका ही हिन्दी सार यहाँ देखते हैं'वर्तमान में प्रत्याख्यानावरणरूप सर्वघाति स्पर्धकों के उदय का क्षय होने से, आगामी काल में उदय आने वाले सत्ता में स्थित उन्हीं के उदय में न आनेरूप उपशम से और संज्वलन कषाय के उदय से प्रत्याख्यान/ संयम प्रगट हुआ होने से वह क्षायोपशमिक भावरूप है। प्रश्न : संज्वलन कषाय के उदय से संयम भाव हुआ होने के कारण उसे औदयिक भाव क्यों नहीं कहा जाता है ? उत्तर : नहीं; क्योंकि संज्वलन कषाय के उदय से संयम की उत्पत्ति नहीं होती है। प्रश्न : तब फिर वहाँ संज्वलन का व्यापार/कार्य क्या है। उत्तर : प्रत्याख्यानावरण कषायरूप सर्वघाति स्पर्धकों के उदयाभावी क्षय (और सदवस्थारूप उपशम) से व्यक्त हुए संयम में मल को उत्पन्न करना, संज्वलन का व्यापार/कार्य है।' इस सम्पूर्ण मीमांसा से अत्यन्त स्पष्ट है कि संज्वलन के उदय से संयम भाव व्यक्त नहीं हुआ होने के कारण यहाँ उस संबंधी औदयिक भाव नहीं है; वरन् प्रत्याख्यानावरण संबंधी क्षायोपशमिक भाव ही है। प्रश्न ४१ : इस प्रमत्तसंयत गुणस्थान का काल स्पष्ट कीजिए। उत्तर : परिणामों आदि की विविध विचित्रता के कारण इस गुणस्थान का काल भी सामान्य से एक अंतर्मुहूर्त मात्र होने पर भी वह अनेक प्रकार का है; जो इसप्रकार है- तत्त्वज्ञान विवेचिका भाग २/१४८ -..
SR No.007197
Book TitleTattvagyan Vivechika Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalpana Jain
PublisherA B Jain Yuva Federation
Publication Year2008
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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