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पना/नग्नता, केशलुंचन, अस्नान, भूमिशयन, अदंतधावन, खड़े-खड़े भोजन और दिन में एक बार भोजन - वास्तव में श्रमणों के ये मूलगुण जिनवरों ने कहे हैं; उनमें प्रमत्त होता हुआ श्रमण छेदोपस्थापक होता है।" ___ इस सम्पूर्ण कथन का निष्कर्ष यह है कि अहिंसा महाव्रत आदि २८ मूलगुणों के पालनरूप शुभभाव, शुभोपयोग, तदनुरूप आत्मिक-प्रवृत्ति; तदनुकूल शारीरिक क्रियाएँ, संयोगों की विद्यमानता-अविद्यमानता इत्यादि सभी बाह्य में दृष्टिगोचर होने के कारण, अंतरंग निर्विकार परिणति के कथंचित्/कदाचित् ज्ञापक-कारण होने से मुनि-दशा की अपेक्षा द्रव्यलिंग कहलाते हैं तथा मिथ्यात्व; अनंतानुबंधी, अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण संबंधी क्रोधादि चतुष्क के अभाव में व्यक्त हुई वीतरागता/शुद्ध परिणति/सम्यक् रत्नत्रय-सम्पन्न निराकुल दशा/भूमिकानुसार अतीन्द्रिय आनंदमय दशा और शुद्धोपयोगमय दशा बाह्य में दृष्टिगोचर नहीं होने पर भी वास्तविक धर्म, संवर-निर्जरामय मोक्षमार्ग होने से मुनि-दशा की अपेक्षा भाव-लिंग कहलाती है।
- इस भाव-लिंगमय मुनिराज तो नियम से द्रव्य-लिंगमय होते हैं; परन्तु द्रव्य-लिंगमय मुनिराज के साथ ऐसा नियम नहीं है। यदि उनके उपर्युक्त शुद्ध परिणति विद्यमान है तो वे भाव-लिंगमय भी हैं; अन्यथा अपनी परिणति के अनुसार मिथ्यात्व, सासादन, मिश्र, अविरत सम्यक्त्व और देश विरत में से किसी एक भूमिकावाले द्रव्य-लिंगमय भी हो सकते हैं। . ___ भाव-लिंग और द्रव्य-लिंग के बीच में परस्पर सहचररूप निमित्तनैमित्तिक संबंध है तथा द्रव्य-लिंग और भाव-लिंग के बीच में पूर्वचर, सहचर, उत्तरचररूप निमित्त-नैमित्तिक संबंध है। द्रव्य-लिंग भाव-लिंग का ज्ञापक-कारण अर्थात् ज्ञान करानेवाला/बतानेवाला कहा गया है; यह कारक-कारण अर्थात् भाव-लिंग को उत्पन्न करनेवाला कारण नहीं है। यही कारण है. कि भाव-लिंग को निश्चय मोक्षमार्ग और द्रव्य-लिंग को व्यवहार मोक्षमार्ग कहा जाता है। निश्चय-व्यवहार नय में प्रतिपाद्यप्रतिपादक संबंध है, कर्ता-कर्म संबंध आदि नहीं हैं। -चतुर्दश गुणस्थान/१४७
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