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अरति और शोकरूप दो मोहनीय; अस्थिर, अशुभ और अयशस्कीर्ति रूप तीन नामकर्म - इसप्रकार ६ कर्म-प्रकृतिओं का बंध होता है। प्रश्न ३९ : मुनि-दशा का द्रव्य-लिंग और भाव-लिंग किसे कहते हैं ? तथा उनका परस्पर में क्या संबंध है ? ... उत्तर : मोक्षमार्ग के इस प्रकरण में चिन्ह या लक्षण को लिंग कहा गया है। जो चिन्ह या लक्षण बाह्य में व्यक्त होते हैं, बाहर से ज्ञात हो जाते हैं; उन्हें द्रव्य-लिंग कहते हैं तथा जो चिन्ह या लक्षण अंतरंग में व्यक्त होते हैं, जिन्हें बाहर से पहिचानना छद्मस्थ ज्ञान के द्वारा सम्भव नहीं है; उन्हें भाव-लिंग कहते हैं। ये सभी साधक दशाओं में अर्थात् श्रावक-साधु दशाओं में नियम से व्यक्त होते ही हैं। यहाँ मुनि-दशा संबंधी इन दोनों लिंगों की चर्चा अभीष्ट है। आचार्य कुन्दकुन्ददेव अपने प्रवचनसार नामक ग्रन्थ में इनकी चर्चा करते हुए लिखते हैं -
"जधजादरूवजादं, उप्पाडिदकेसमंसुगं सुद्धं । रहिंदं हिंसादीदो, अप्पडिकम्मं हवदि लिंगं॥२०५॥
मुच्छारंभविजुत्तं, जुत्तं उवओगजोगसुद्धीहिं।। . लिंगं ण परावेक्खं, अपुणब्भवकारणं जेण्हं ॥२०६॥
जन्म-समय के रूप जैसा रूपवाला; शिर, दाढ़ी और मूछ के केशों का लोंच किया हुआ; शुद्ध/अकिंचन, हिंसादि से रहित और प्रतिकर्म/ शारीरिक-शृंगार से रहित बहिरंग-लिंग है। __ मूर्छा/ममत्व और आरम्भ से रहित, उपयोग और योग की शुद्धि से सहित तथा पर की अपेक्षा से रहित मोक्ष का कारणभूत, जिनेन्द्रदेव द्वारा बताया गया अंतरंग-लिंग है।" .
पुनः इन्हीं का विस्तार करते हुए वहीं वे आगे लिखते हैं“वदसमिदिदियरोधो, लोचावस्सयमचेलमण्हाणं।
खिदिसयणमदंतवणं, ठिदिभोयणमेगभत्तं च ॥२०८॥ - एदे खलु मूलगुणा समणाणं जिणवरेहिं पण्णत्ता।
तेसु पमत्तो समणो छेदोवट्ठावगो होदि ॥२०९।। पाँच महाव्रत, पाँच समिति, पाँच इन्द्रियरोध, छह आवश्यक, अचेल
- तत्त्वज्ञान विवेचिका भाग २/१४६ -
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