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में विद्यमान रहते हैं। इनसे सहित मुनिराज प्रमत्तसंयमी कहलाते हैं। ये प्रमत्तविरत, महाव्रती, सकलसंयमी, अनगारी इत्यादि अनेक नामों से
भी जाने जाते हैं। ___इस प्रमत्तसंयत गुणस्थानवाले मुनिराज मध्यम-अंतरात्मा कहलाते हैं। औपशमिक, क्षायोपशमिक और क्षायिक - इन तीन सम्यक्त्वों में से किसी भी सम्यक्त्ववाले होने पर भी चारित्र की अपेक्षा इनके मात्र क्षायोपशमिक भाव ही होता है।
यद्यपि यह गुणस्थान सर्वप्रथम सदा अप्रमत्तसंयत नामक सातवें गुणस्थान से पतित होने पर ही व्यक्त होता है; तथापि यहाँ से पुन: उसी सातवें गुणस्थान को प्राप्त किया जा सकता है। छठवें, सातवेंगुणस्थान में आनाजाना प्रति अंतर्मुहूर्त में सतत होते रहने से मुनिराज के एक जीवन में यह अनेकों बार होता रहता है। __आचार्य, उपाध्याय पद के कार्य-दीक्षा देना, प्रायश्चित्त देना, शिक्षा
देना आदि; आहार, विहार, निहार आदि; शास्त्र-लेखन, तत्त्व-चर्चावार्ता आदि; व्यक्त ऋद्धिओं का उपयोग आदि साधु जीवन में होने वाले शुभोपयोगमय सभी कार्य तथा कदाचित् भूमिकानुसार निदान बंध को छोड़कर शेष तीन आर्तध्यान, निद्रा आदि कार्य भी इसी गुणस्थान में ही होते हैं; इससे आगे के सभी गुणस्थान मुनि-दशावाले होने पर भी वे सभी शुद्धोपयोगमय होने से वहाँ ये सभी कार्य सम्भव ही नहीं हैं।
यहाँ संयत शब्द में लगा प्रमत्त विशेषण अंत्य-दीपक है। यद्यपि यह और इसके नीचे के पाँच गुणस्थान प्रमाद-युक्त ही हैं; तथापि गुणस्थानानुसार प्रमाद प्रवृत्ति में अंतर है। यह तथा यहाँ से आगे के सभी गुणस्थान एकमात्र मनुष्यगति की द्रव्य-पुरुष-दशा में ही होते हैं; उनमें भी आयुबंध की स्थिति में देवायु को छोड़कर अन्य आयु बँध जाने पर ये नहीं होते हैं। ___ मुनि-दशा के ये सभी कार्य श्रावकों के लिए हितकर होने पर भी उन मुनि की भूमिकानुसार तीव्र कषायमय होने से वे उनके लिए बंधनकारक ही हैं। इन प्रमादरूप परिणामों से असाता-वेदनीयरूप एक वेदनीय;
- चतुर्दश गुणस्थान/१४५