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तीनों लोकों को जीत लेनेवाले काम/विषय-वासनारूपी महायोद्धा को जिन्होंने स्वयं आत्मबल से कुमार अवस्था में ही जीत लिया है। जिससे जिनके स्थाई निराकुलतामय शान्तियुक्त पद का राज्य प्रगट हुआ है; वे जिनेन्द्र भगवान महावीरस्वामी मेरे नयनपथगामी हो॥७॥ __ अब, इस आठवें छन्द द्वारा भवरोग-नाशक, वीतरागता-सम्पन्न, हितोपदेशी भगवान महावीरस्वामी को अपने हृदय में विराजमान करने की भावना भाते हैं; जो इसप्रकार है -
महा-मोहातंक-प्रशमन-पराकस्मिग्भिषग्। निरापेक्षो बंधुर्विदित-महिमा मंगलकरः॥ शरण्यः साधूनां भव-भय-भृतामुत्तम-गुणो।
महावीरस्वामी नयनपथगामी भवतु मे (न:)॥८॥ अब मिले आकस्मिक भिषग् नाशक महारुज मोह के। निरपेक्ष बंधु विदित महिमा जगत मंगल करन ये॥ भवभयसहित साधु जनों को शरण उत्तम गुणी हैं।
वे नयन पथ से आ सदा, महावीर स्वामी उर बसें॥८॥ शब्दश: अर्थ : महा मोह-अंतक/आतंक महामोहरूपी रोगको, प्रशमनपर:=शान्त करने में लगे हुए, आकस्मिक अचानक मिले हुए, भिषग्= वैद्य, निरापेक्षः निरपेक्ष/नि:स्वार्थ, बन्धुः=बंधु/इष्टजन, विदित-महिमा =जिनकी महिमा समस्त लोक को विदित/ज्ञात है, मंगलकर:=मंगल करनेवाले, शरण्यः शरणभूत, साधूनां साधुओं के लिए, भवभयभृतां= संसार के भय से भरे हुए/भयभीत, उत्तमगुण: उत्तमगुणवाले, महा...। सरलार्थ : जो महामोहरूपी रोग को शान्त करने में तत्पर आकस्मिक उपलब्ध वैद्य हैं, निरपेक्ष/निस्वार्थ बंधु हैं, जिनकी महिमा समस्त लोक को विदित है; जो मंगलकारक हैं, संसार के भय से भयभीत साधुओं के लिए शरणभूत हैं, उत्तम गुण-सम्पन्न हैं; वे भगवान महावीर-स्वामी मेरे नयनपथगामी हों।।८॥
अब, इस छन्द द्वारा स्तोत्र का नाम, कवि का नाम बताते हुए उसे पढ़ने, सुनने, हृदयंगम करने का फल बताते हैं; जो इसप्रकार है
- तत्त्वज्ञान विवेचिका भाग २/१० -