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पवित्र, वृहत् = विशाल / अगाध, ज्ञान- अम्भोभिः = ज्ञानरूपी जल द्वारा, जगति=जगत में, जनता=जनता को, या=जो, स्नपयति=स्नान कराती रहती है, इदानीं = इससमय, अपि = भी, एषा यह, बुधजन = ज्ञानीजनरूपी, मरालै: - हंसों द्वारा परिचिता = परिचित, महा... ।
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सरलार्थ : जिनकी वचनरूपी गंगा अनेकप्रकार की नयरूपी लहरों के कारण विमल/पवित्र है; जो अगाध ज्ञानरूपी जल के द्वारा जगत में रहने वाली जनता को स्नान कराती रहती है, इससमय भी यह ज्ञानीजन रूपी हंसों द्वारा परिचित है: वे भगवान महावीरस्वामी मेरे नयनपथगामी हों ॥६॥
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अब, इस सातवें छन्द द्वारा आत्मस्थिरता के बल पर, उद्दाम वेगवाली त्रिभुवनजयी विषय-वासनाओं को जीतकर अनन्त वैभव-संम्पन्न स्वराज्य को अल्पवय में ही प्राप्त कर लेनेवाले भगवान महावीरस्वामी को अपने हृदय में विराजमान करने की भावना भाते हैं; जो इसप्रकार हैअनिर्वारोद्रेकस्त्रिभुवन - जयी काम - सुभट: । कुमारावस्थायामपि निजबलाद्येन विजितः । स्फुरन्नित्यानन्द - प्रशमपद - राज्याय स जिन: । महावीरस्वामी नयनपथगामी भवतु मे (नः) ॥७॥ दुर्वार अति उद्रेक त्रिभुवन जयी काम सुभट महा । निज आत्मबल से तरुणता में हरा उसको विजय पा ॥ जो व्यक्त नित्यानंद शिव-सुख शांत पद के पति हैं ।
वे नयन पथ से आ सदा, महावीर स्वामी उर बसें ॥७॥ शब्दश: अर्थ : अनिर्वार=सरलता से नहीं रोका जानेवाला, उद्रेकः = वेग, त्रिभुवनजयी = तीनों लोकों को जीत लेनेवाला, कामसुभट:=काम/विषय - वासनारूपी महायोद्धा, कुमार अवस्थायां छोटी / कम उम्र में, अपि = भी / ही, निजबलात् = निज / आत्मबल से, येन = जिसके द्वारा, विजित: = जीत लिया गया है, स्फुरत्= प्रगट हुआ, नित्य=स्थाई, आनन्द = निराकुलसुख, प्रशमपदं=शान्तिमय पद, राज्याय=राज्य, स:= वह/वे, जिन-जिन, महा....।
सरलार्थ : सरलता से नहीं रोका जानेवाला अनिर्वार है वेग जिसका, उस महावीराष्टक स्तोत्र / ९