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शब्दशः अर्थ:कनत्स्वर्ण-आभा तपाए हुए स्वर्ण के समान आभावाले, स:=वह (वे), अपि=भी, अपगततनुः शरीर से रहित, ज्ञाननिवहः= ज्ञानरूपी शरीरवाले, विचित्र-आत्मा-अपि अनेक स्वरूप वाले होते हुए भी, एक: एक, नृपतिवर राजाओं में श्रेष्ठ, सिद्धार्थतनयः सिद्धार्थ के पुत्र,
अजन्मां-अपि जन्मरहितहोने पर भी, श्रीमान् लक्ष्मी-सम्पन्न होने पर भी, विगतभवरागः संसार संबंधी राग से रहित, अद्भुत-गति: आश्चर्यशील | आश्चर्यों के निधान, महा....। सरलार्थ : जो बहिरंग दृष्टि से तपाए हुए स्वर्ण के समान आभावाले और अंतरंग दृष्टि से ज्ञानशरीरी/केवलज्ञान के पुंज/शरीरमय होने पर भी शरीर से रहित हैं; (विविध ज्ञेय, ज्ञान में झलकते होने से) विचित्र/अनेक होने पर भी एक/अखण्ड हैं; जन्मरहित होने पर भी राजाओं में श्रेष्ठ सिद्धार्थ के पुत्र हैं; केवलज्ञान आदि अंतरंग और समवसरण आदि बहिरंग लक्ष्मी से सहित श्रीमान होने पर भी संसारसंबंधी राग से रहित हैं; ऐसे अद्भुतगतिमय आश्चर्यों के निधान वे भगवान महावीरस्वामी मेरे नयनपथगामी हो ॥५॥ __ अब, इस छठवें छन्द द्वारा नयरूपी लहरों से निर्मल, ज्ञानीजनों को सुपरिचित, सागर सदृश गंभीर दिव्यध्वनि द्वारा हितोपदेशक भगवान महावीर-स्वामी को अपने हृदय में विराजमान करने की भावना भाते हैं; जो इसप्रकार है
यदीया वाग्गंगा विविध-नय-कल्लोल-विमला। वृहज्ज्ञानांभोभिर्जगति जनतां या स्नपयति । इदानीमप्येषा बुध-जन-मरालैः परिचिता। महावीरस्वामी नयनपथगामी भवतु मे (न:)॥६॥ जिनकी वचन गंगा विविध नय लहर से निर्मल सदा। निःसीम केवलज्ञान जल से, नहाती सबको सदा॥ जो अभी भी है सुपरिचित विद्वद् जनों मय हंस से।
वे नयन पथ से आ सदा, महावीर स्वामी उर बसें॥६॥ शब्दश: अर्थ : यदीया जिनकी, वाक्-गंगा=वचनरूपी गंगा, विविध= अनेकप्रकार के, नयकल्लोल-नयरूपी लहरों के कारण, विमला=निर्मल/
- तत्त्वज्ञान विवेचिका भाग २/८ -