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________________ लभते सद्भक्ताः शिव सुख- समाजं किमुतदा । महावीरस्वामी नयनपथगामी भवतु मे (नः ) ||४|| तव अर्चना के भाव से, मन मोद युत मेंढ़क चला। हो गया गुणगण सुखनिधि, सम्पन्न क्षण में स्वर्ग जा ॥ आश्चर्य क्या? सद्भक्त शिव-सुख-निधि से सम्पन्न हैं। वे नयन पथ से आ सदा, महावीर स्वामी उर बसें ॥४॥ शब्दश: अर्थ : यत् = जिनकी, अर्चा = पूजा के, भावेन = भाव से, प्रमुदितमना=प्रसन्न मनवाला, दर्दुर- मेंढ़क, इह = यहाँ, क्षणात् क्षण भर में, आसीत् =हो गया, स्वर्गी=स्वर्गसंबंधी, गुणगणसमृद्धः-गुणों के समूह से समृद्ध, सुखनिधिः- सुख का भंडार, लभंते = प्राप्त करते हैं, सद्भक्ताः सद्भक्त, शिवसुखसमाजं=मोक्ष-सुख के समूह को, किमुतदा=तो क्या आश्चर्य, महा..... । सरलार्थ : इस लोक में जिनकी पूजन के भाव से प्रसन्न मनवाला मेंढ़क भी क्षण भर में स्वर्ग संबंधी गुणों के समूह से समृद्ध और सुख के भंडारमय हो गया; तब यदि (उनके) सद्भक्त मोक्षसुख के समूह को प्राप्त कर लें तो इसमें क्या आश्चर्य है ? अर्थात् वे तो मोक्ष प्राप्त करेंगे ही; ऐसे वे भगवान महावीरस्वामी मेरे नयनपथगामी हों ॥४॥ अब, इस पाँचवें छन्द द्वारा भगवान के अपेक्षावश विविध स्वरूप बताकर अनेकान्तात्मक वस्तुस्वरूप का स्याद्वाद शैली में निरूपण करने वाले भगवान महावीरस्वामी को अपने हृदय में विराजमान करने की भावना भाते हैं; जो इसप्रकार है - कनत् - स्वर्णाभासोऽप्यगत - तनुर्ज्ञान - निवहो । विचित्रात्माप्येको नृपतिवर - सिद्धार्थ - तनयः ॥ अजन्मापि श्रीमान् विगत - भवरागोद्भुत - गतिः । महावीरस्वामी नयनपथगामी भवतु मे (नः) ॥५॥ है तप्त कंचन समप्रभा, तन रहित, चेतन तन सहित । हैं विविध भी हैं एक भी, हैं जन्म बिन सिद्धार्थ सुत । श्रीमान भी भव- राग बिन, आश्चर्य के भंडार हैं। वे नयन पथ से आ सदा, महावीर स्वामी उर बसें ॥५॥ महावीराष्टक स्तोत्र / ७
SR No.007197
Book TitleTattvagyan Vivechika Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalpana Jain
PublisherA B Jain Yuva Federation
Publication Year2008
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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