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________________ अब, इस तीसरे छन्द द्वारा प्राणीमात्र के लिए हितकर त्रिजग - वंद्य भगवान महावीर स्वामी को अपने हृदय में विराजमान करने की भावना भाते हैं; जो इसप्रकार है - नमन्नाकेन्द्राली - मुकुट - मणि- भा-जाल - जटिलं । लसत्-पादाम्भोज-द्वयमिह यदीयं तनु- भृताम् ॥ भव-ज्वाला- शान्त्यै प्रभवति जलं वा स्मृतमपि । महावीरस्वामी नयनपथगामी भवतु मे ( नः ) || ३ || नित नमन करते इंद्र गण के मुकुट मणि की प्रभा से । जिनके जटिल आभास पद, पंकज शरीरी जनों से ॥ भवदुःखज्वाला शमन हेतु सलिल सम स्मृत्य हैं । वे नयन पथ से आ सदा, महावीर स्वामी उर बसें ॥ ३॥ शब्दश: अर्थ : नमत् = झुके हुए / नम्रीभूत, नाक = स्वर्ग के, इन्द्र- अली = इन्द्रों के समूह के, मुकुटमणिमुकुटों की मणिओं के, भाजाल = प्रभा / कान्ति - समूह से, जटिलं मिश्रित, लसत् = शोभायमान, पाद- अम्भोजद्वयं =चरणकमलदोनों,इह=यहाँ, यदीय= जिनके, तनुभृतां = शरीरधारिओं की, भवज्वाला=संसाररूपी आग की लपटों को, शान्त्यै=शान्त करने के लिए, प्रभवति=प्रवाहित होता है, जलं = जल के, वा= समान, स्मृतं-अपि = स्मरण करने मात्र से भी, महा.... । सरलार्थ : नम्रीभूत स्वर्ग के इन्द्रों के मुकुटों की मणिओं के प्रभासमूह से मिश्रित जिनके शोभायमान चरणरूपी कमलयुगल, स्मरण करने मात्र से शरीरधारिओं की भवज्वाला को शान्त करने के लिए मानों जल के समान प्रवाहित हो रहे हैं; वे भगवान महावीरस्वामी मेरे नयनपथगामी हों || ३ || अब, मेंढ़क जैसे सामान्य प्राणी को भगवान के प्रति भक्ति-भाव के फल में प्राप्त स्वर्ग-सम्पदा को बताकर इस छन्द द्वारा समीचीन भक्तों को आत्म-स्वरूप में स्थिर रहने का संदेश देनेवाले भगवान महावीरस्वामी को अपने हृदय में विराजमान करने की भावना भाते हैं; जो इसप्रकार हैयदर्चा - भावेन प्रमुदित-मना दर्दुर-इह | क्षणादासीत् स्वर्गी गुण-गण-समृद्धः सुखनिधिः ॥ - तत्त्वज्ञान विवेचिका भाग २ / ६
SR No.007197
Book TitleTattvagyan Vivechika Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalpana Jain
PublisherA B Jain Yuva Federation
Publication Year2008
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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