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दर्शन देनेवाले, भवतु-हों, मे मेरे लिए मुझे, न: हमारे लिए हमें, ते= तुम्हारे लिए/तुम्हें, व:-तुम सभी के लिए। . सरलार्थ : दर्पण के समान जिनके केवलज्ञान में उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यसम्पन्न, अनन्त चेतन और अचेतन पदार्थ एकसाथ प्रतिभासित होते हैं, जो जगत के साक्षीभूत/ज्ञाता-दृष्टा हैं, सूर्य के समान मोक्ष के मार्ग/ उपाय को प्रकाशित करने में तत्पर हैं; वे भगवान महावीरस्वामी मेरे/ हमारे नयन-पथगामी हों, मुझे/हमें दर्शन दें।।१।।
अब, इस दूसरे छन्द द्वारा अंतरंग-बहिरंग वीतरागता-सम्पन्न भगवान महावीर स्वामी को अपने हृदय में विराजमान करने की भावना भाते हैं; जो इसप्रकार है
अतानं यच्चक्षुः कमल-युगलं स्पन्द-रहितम्। जनान्-कोपापायं प्रकटयति वाभ्यन्तरमपि॥ स्फुटं मूर्तिर्यस्य प्रशमितमयी वातिविमला। महावीरस्वामी नयनपथगामी भवतु मे (न:)॥२॥ निष्पंद हैं दो नेत्र नीरज, लालिमा विरहित सदा।। अंदर-बहिर क्रोधादि विरहित, हैं बताते वे सदा॥ अति विमल अति शांतिमयी सुस्पष्ट मुद्रावान हैं।
वे नयन पथ से आ सदा, महावीर स्वामी उर बसें ॥२॥ शब्दशः अर्थ : अताम्र-लालिमारहित, यत्-जिनके, चक्षुः नेत्ररूपी, कमलयुगलं-दो कमल, स्पन्दरहितं-टिमकार रहित, जनान् मनुष्यों को, कोप-अपायं-क्रोध से रहितपना, प्रकटयति प्रगट करते हैं, वा=बाह्य, अभ्यन्तरं अन्तरंग, अपि=भी, स्फुटं स्पष्टरूप से, मूर्तिः=मुद्रा, यस्य= जिसकी, प्रशमितमयी अत्यन्त शान्ततामय, वा और, अतिविमला अत्यन्त विमल, महा....।
.. सरलार्थ : जिनके लालिमारहित और स्पन्दरहित नेत्ररूपी कमल-युगल मनुष्यों को बहिरंग और अन्तरंग क्रोधादि विकारों से रहितपना प्रगट करते हैं; जिनकी मुद्रा स्पष्टरूप से पूर्ण शान्त और अत्यन्त विमल है; वे भगवान महावीरस्वामी मेरे नयनपथगामी हों।।२।।
- महावीराष्टक स्तोत्र/५