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- इस गुणस्थानवर्ती श्रावक के जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट भेद भी किए गए हैं। नैष्ठिक श्रावक, साधक श्रावक, गृह विरत श्रावक और गृहनिरत श्रावक आदि रूपों में भी इन्हें विभक्त किया गया है। ___ ग्यारह प्रतिमाओं का स्वरूप विस्तार से समझने के लिए तत्त्वज्ञान विवेचिका भाग १ का पृष्ठांक ५० से ७८वें पर्यंत गहराई से अध्ययन करना चाहिए। इसीप्रकार अहिंसा अणुव्रत आदि बारह व्रतों को समझने के लिए वीतराग विज्ञान विवेचिका का पृष्ठांक २०८ से २२९वें पर्यंत एकाग्रता पूर्वक अध्ययन-मनन करना चाहिए। ___ इसप्रकार पुरुषार्थ की हीनाधिकता आदि कारणों से इस देशविरत नामक पाँचवें गुणस्थान के अनेक भेद हो जाते हैं। प्रश्न ३६ : देशविरत नामक पाँचवें गुणस्थान का काल स्पष्ट कीजिए। उत्तर : परिणामों आदि की विविधता और विचित्रता के कारण इस गुणस्थान के काल में भी विविधता देखी जाती है। इसका जघन्यकाल तो सर्वत्र यथायोग्य अंतर्मुहूर्त ही है। इससे कम अर्थात् सासादन आदि गुणस्थानों के समान एक समय, दो समय आदि काल इसका कभी भी नहीं होता है। इस गुणस्थान को प्राप्त करनेवाला साधक इन भावों में कम से कम अंतर्मुहूर्त तो रहता ही है। __उत्कृष्ट-काल मनुष्य की अपेक्षा गर्भकाल सहित आठ वर्ष और एक अंतर्मुहूर्त कम एक कोटि पूर्व वर्ष तथा सम्मूर्छन तिर्यंच की अपेक्षा तीन अंतर्मुहूर्त कम एक कोटि पूर्व वर्ष भी हो सकता है। इन दोनों कालों के मध्यवर्ती सभी समय इसके मध्यम-काल संबंधी भेद हैं। प्रश्न ३७: देशविरत नामक इस पाँचवें गुणस्थान का गुणस्थान की अपेक्षा गमनागमन स्पष्ट कीजिए। उत्तर : परिणामों आदि की विविध विचित्रता के कारण इस गुणस्थान के गमनागमन में भी विविधता है। गमन की अपेक्षा इस गुणस्थानवर्ती द्रव्यलिंगी मुनिराज विशिष्ट आत्मोन्मुखी पुरुषार्थ द्वारा आरोहण कर सातवें अप्रमत्तसंयत गुणस्थान को प्राप्त कर सकते हैं।
पुरुषार्थ की हीनता में यहाँ से अवरोहण कर चौथे अविरत सम्यक्त्व गुणस्थान में; औपशमिक या क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टि तीसरे सम्य
- तत्त्वज्ञान विवेचिका भाग २/१४२ -