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________________ ग्मिथ्यात्व या पहले मिथ्यात्व गुणस्थान में तथा मात्र औपशमिक सम्यग्दृष्टि दूसरे सासादन गुणस्थान में भी जा सकता है। आगमन की अपेक्षा पहले या चौथे गुणस्थानवर्ती द्रव्यलिंगी मुनिराज या श्रावक आत्मोन्मुखी पुरुषार्थ द्वारा आरोहण कर इस गुणस्थान को प्राप्त कर सकते हैं । अवरोहण की अपेक्षा पुरुषार्थ की हीनता में छठवें प्रमत्तसंयत गुणस्थानवर्ती मुनिराज यहाँ आ सकते हैं। गमन इसे हम संदृष्टि द्वारा इसप्रकार देख सकते हैं - देशविरत नामक पंचमगुणस्थान का गमनागमन द्रव्यलिंगी मुनि ७वें में - छठवें प्रमत्तसंयत से पाँचवें देशविरत गुण. से चौथे में -- औ. या क्षायो. स. तीसरे में मात्र औ. स. दूसरे में औ. या क्षायो. स. पहले में ← पाँचवें देशविरत गुण. में आगमन द्रव्यलिंगी मुनि - श्रावक चौथे से - पहले से प्रश्न ३८ : छठवें प्रमत्तसंयत गुणस्थान का स्वरूप स्पष्ट कीजिए । उत्तर : सदा अवरोहण ( गिरने की ) अवस्था में ही व्यक्त होनेवाले इस गुणस्थान का स्वरूप आचार्यश्री नेमिचंद्र सिद्धान्त - चक्रवर्ती ने अपने गोम्मटसार जीवकाण्ड ग्रन्थ में इसप्रकार लिखा है - "संजलणणोकसायाणुदयादो संजमो हवे जम्हा । मलजणणपमादो वि य, तम्हा हु पमत्तविरदा सो ॥ ३२ ॥ वत्तावत्तपमादे, जो वसइ पमत्तसंजदो होदि । सयलगुणसीलकलिओ, महव्वई महव्वई चित्तलायरणो ||३३|| संयम हो जाने पर भी संज्वलन और नो कषायों का उदय होने से जिस कारण मल को उत्पन्न करनेवाला प्रमाद भी होता है; उसकारण ये प्रमत्तविरत हैं। सम्पूर्ण गुणों / मूलगुणों और शीलों / उत्तरगुणों से सहित महाव्रती होने पर भी जो व्यक्त और अव्यक्त प्रमाद में रहता है; वह चित्रल आचरणवाला प्रमत्तसंयत होता है ।' चतुर्दश गुणस्थान / १४३
SR No.007197
Book TitleTattvagyan Vivechika Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalpana Jain
PublisherA B Jain Yuva Federation
Publication Year2008
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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