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न्त-चक्रवर्ती अपने गोम्मटसार जीवकांड नामक ग्रन्थ में लिखते हैं -
“पच्चक्खाणुदयादो, संजमभावो ण होदि णवरिं तु। थोववदो होदि तदो, देसवदो होदि पंचमओ॥३०॥ जो तसवहाउविरदो, अविरदओ तह य थावरवहादो। एक्कसमयम्हि जीवो, विरदाविरदो जिणेक्कमई॥३१॥ प्रत्याख्यानावरण कषाय का उदय होने से (पूर्ण) संयमभाव नहीं हो पाता है; तथापि एक देशव्रत हो जाते हैं, वह पाँचवाँ देशव्रत गुणस्थान है।
जिनेन्द्र देव में एकमति/एकनिष्ठ श्रद्धानी जो एक ही समय में युगपत् त्रसहिंसा से विरत, स्थावरहिंसा से अविरत है, वह विरताविरत जीव है।"
भाव यह है कि दर्शनमोहनीय, अनंतानुबंधी और अप्रत्याख्यानावरण क्रोधादि के अभाव में व्यक्त वीतरागता-सम्पन्न, बारह व्रतादि के पालन रूप शुभभावों से सहित दशा देशविरत नामक पंचम गुणस्थान है। उससे सहित जीव देशव्रती या पंचम गुणस्थानवी जीव कहलाता है। इसके मिथ्यात्व और दो चौकड़ी कषाय के अभावरूप शुद्धता के साथ शेष रहीं दो चौकड़ी कषायों और नो कषायों की विद्यमानता के कारण अशुद्धता भी विद्यमान है; जिसकारण स्थूलरूप में हिंसादि पापों से निवृत्त हो जाने पर भी यह सूक्ष्म हिंसादि पापों से निवृत्त नहीं हो पाता है; तथापि सतत सावधानी पूर्वक प्रवृत्ति करते हुए अप्रयोजनीय पापों से निवृत्त रहता है।
इसप्रकार एक साथ ही इंद्रिय-असंयम और प्राणी-असंयम का स्थूल रूप में त्यागी होने पर भी सूक्ष्मरूप में त्याग नहीं हो पाने से यह देशव्रत है। यह मध्यम अंतरात्मा है तथा विरताविरत, संयमासंयम, देश-संयम, देशचारित्र, अणुव्रती, प्रतिमाधारी श्रावक इत्यादि इसके अनेकों नाम हैं।
औपशमिक, क्षायोपशमिक और क्षायिक सम्यक्त्व में से किसी भी सम्यक्त्व के साथ यह गुणस्थान हो सकता है; तथापि देवायु को छोड़कर अन्य तीन आयुओं में से किसी भी आयु का बंध हो जाने पर यह अवस्था नहीं होती है। व्यक्त ज्ञान की हीनाधिकता, बाह्य संयोगों की अनुकूलताप्रतिकूलता आदि के साथ इसका कुछ भी संबंध नहीं है। यह तो चतुर्थ गुणस्थान की अपेक्षा एकमात्र विशेष आत्म-स्थिरतारूप शुद्धता-अशुद्ध
- चतुर्दश गुणस्थान/१३७