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________________ तामय मिश्र दशा है। चार निकायवाले देवगति के किन्हीं भी देवों, इंद्रों, अहमिंद्रों में; भोगभूमिजों, म्लेच्छों और नारकिओं में इस देशविरत दशा प्रगट करने की पात्रता नहीं होती है। इसै एकमात्र गर्भज, कर्मभूमिज मनुष्य और गर्भज, सम्मूर्छनज कर्मभूमिज सैनी पंचेंद्रिय तिर्यंच ही पर्याप्तक दशा में विशेष आत्मोन्मुखी पुरुषार्थ द्वारा प्रगट कर सकते हैं। शारीरिक, वाचनिक शुभाशुभ क्रियाओं, बाह्य प्रवृत्तिओं से भी इसका विशेष संबंध नहीं है । वे तो मात्र अंतरंग शुद्धता होने पर इसका ज्ञान करानेवाली ज्ञापक कारण होती हैं; अत: उनमें परिवर्तन मात्र से यह गुणस्थान प्रगट नहीं होता है। यह तो एक मात्र तत्त्व-निर्णय पूर्वक, स्व-पर भेद-विज्ञान सहित विशेष आत्म-स्थिरतारूप अंतरोन्मुखी पुरुषार्थ से व्यक्त होता है। इस देशविरत गुणस्थान के दूसरे नाम संयमासंयम में संयम शब्द आदिदीपक और असंयम शब्द अंत्य- दीपक है अर्थात यहाँ से संयम दशा प्रारम्भ हो गई है तथा इससे पहले की सभी दशाएं तो नियम से असंयममय ही हैं; यहाँ भी अभी कुछ असंयम शेष है। इस आंशिक संयम-असंयम युक्त संयमासंयम दशा में चारित्र की अपेक्षा क्षायोपशमिक भाव माना गया है। प्रत्याख्यानावरण जन्य इन भावों से प्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभरूप चारित्रमोहनीय की चार प्रकृतिओं का बंध होता है। प्रश्न ३२ : चैतन्य और अचैतन्य के समान संयम और असंयम परस्पर विरुद्ध भाव हैं; तब ये दोनों एक साथ एक ही जीव में कैसे रह सकते हैं; और उनके नहीं रह पाने पर यह गुणस्थान कैसे बन सकता है? उत्तर : आचार्य वीरसेन स्वामी ने अपनी धवल टीका में यही शंका उपस्थित कर इस पर विस्तृत विचार-विमर्श किया है; अत: उसे ही आधार बनाकर उसी का संक्षिप्त सार यहाँ इस प्रश्न के उत्तररूप में प्रस्तुत है - 'विरोध दो प्रकार का है - परस्पर परिहार लक्षण विरोध और सहानवस्था लक्षण विरोध। इनमें से एक द्रव्य के अनंत गुणों में होने वाला परस्पर परिहार लक्षण विरोध तो यहाँ स्वीकृत ही है; क्योंकि उसके बिना तत्त्वज्ञान विवेचिका भाग २ / १३८ -
SR No.007197
Book TitleTattvagyan Vivechika Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalpana Jain
PublisherA B Jain Yuva Federation
Publication Year2008
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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