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३. प्रशस्त प्रकृतिओं में प्रति समय अंनतगुणा बढ़ता हुआ चतुःस्थानगत अनुभागबंध होता है।
४.अप्रशस्त प्रकृतिओं में प्रतिसमय अनंत गुणा घटता हुआ द्विस्थानगत अनुभागबंध होता है। २. अपूर्वकरण : इनमें प्रति समयवर्ती विशुद्धिरूप परिणाम अपूर्वअपूर्व ही होते हैं। इनमें भिन्न समयवर्ती नाना जीवों के परिणाम सदा असमान ही होते हैं; परन्तु एक समयवर्ती नाना जीवों के परिणाम समान
और असमान – दोनों प्रकार के हो सकते हैं। इनमें अनुकृष्टि रचना नहीं होती है। अध:प्रवृत्तकरण संबंधी चार आवश्यकों के साथ ही यहाँ चार आवश्यक कार्य और भी होते हैं। वे इसप्रकार हैं- १. गुणश्रेणी, २. गुणसंक्रमण, ३. स्थिति कांडकघात और ४. अनुभाग कांडकघात। ३. अनिवृत्तिकरण : यहाँ प्रतिसमयवर्ती परिणाम अनंतगुणे विशुद्ध होते रहते हैं। समान समयवर्ती जीवों के परिणाम सदा समान ही होते हैं। यहाँ सदा एकसमयवर्ती एक ही परिणाम होता है; अत: विशुद्धि की अपेक्षा परिणामों की पूर्ण समानता है। इनमें अपूर्वकरण के चार आवश्यकों के साथ ही स्थिति बंधापसरण भी होता रहता है। ___ अनिवृत्तिकरण के काल का संख्यात बहुभाग काल बीत जाने पर दर्शनमोहनीय कर्म का अंत:करण और फिर उपशम करण होता है। यही जीव के औपशमिक सम्यक्त्व की दशा है। ___ इस सम्पूर्ण कथन का निष्कर्ष यह है कि यद्यपि सम्यग्दर्शन पाँच लब्धि पूर्वक होता है; तथापि उनमें हमारा कुछ विशेष बुद्धि पूर्वक बाह्य पुरुषार्थ कार्यकारी नहीं है। हमारा बुद्धि पूर्वक पुरुषार्थ तो मात्र इतना ही है कि हम अन्याय, अनीति, अभक्ष्य-सेवन और गृहीत मिथ्यात्वसे हटकर, तत्त्व का सत्स्व रूप समझकर, तत्त्व-निर्णय कर, अपने उपयोग को बारम्बार तत्त्वविचार में लगाते हुए, उसे आत्म-सम्मुख कर आत्म-रूप, आत्मस्थिर रहने का उद्यम करें; शेष कार्य तो योग्यतानुसार स्वयमेव होंगे ही; उनमें हमें कुछ भी नहीं करना है; अत: सर्वशक्ति लगाकर एकमात्र यही अंतरोन्मुखी वृत्ति करना कार्यकारी है। __ अनादि-अनंत ज्ञानानन्द आदि अनंत वैभव-सम्पन्न अपने भगवान
-- तत्त्वज्ञान विवेचिका भाग २/१३४ -