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________________ कर्म बंध आदि में यह समग्र परिवर्तन अपने परिणामों की निमित्तता में अपने आप होता है; अत: बुद्धिपूर्वक अपना कार्य तो एकमात्र तत्त्वनिर्णय में ही बारम्बार उपयोग को स्थिर करना है। ... __ सागार धर्मामृत में इस प्रायोग्य लब्धि को 'कर्म-हानि' नाम से बताया गया है। ५. करण लब्धि : अंतर्मुहूर्त में सम्यक्त्व प्राप्त कर लेने की योग्यता वाले जीव को ही यह करण लब्धि होती है। इसमें परिणाम उत्तरोत्तर विशेषविशेष आत्मोन्मुखी होते जाते हैं। करणानुयोग में जिसे करण लब्धि कहते हैं; अध्यात्म भाषा में उसे ही आत्मसम्मुख परिणाम, निज शुद्धात्मभावनारूप सविकल्प स्वसंवेदन ज्ञान, आत्मोन्मुखी वृत्ति आदि कहते हैं। __ अन्य जीवों के परिणामों से तुलना करने की अपेक्षा इस करणलब्धि के तीन भेद हैं - अधःप्रवृत्तकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण। वास्तव में तो इन परिणामों का तारतम्य केवलज्ञानी ही जानते हैं; तथापि स्थूलरूप में इनका निरूपण करणानुयोग में किया गया है। इनमें अपना बुद्धि पूर्वक कुछ भी पुरुषार्थ नहीं है। ___ इस संदर्भ में पंडित टोडरमलजी का कथन इसप्रकार है – “करण लब्धिवाले जीव का बुद्धिपूर्वक इतना ही उद्यम होता है कि वह तत्त्वविचार में उपयोग को तद्रूप होकर लगाता है, उसकेकारण परिणाम प्रति समय अधिकाधिक निर्मल होते जाते हैं। तत्त्वोपदेश का विचार निर्मल होते जाने से थोड़ेही काल में उसे तत्त्व-श्रद्धानरूप सम्यक्त्व होता है।" अति संक्षेप में इन तीनों करणों के लक्षण और कार्य इसप्रकार हैं१. अधःप्रवृत्तकरण : ऊपर के समयवर्ती जीवों के परिणाम निचले समयवर्ती जीवों के परिणामों से जिनमें संख्या और विशुद्धता की अपेक्षा कुछ समान होते हैं, उन्हें अधःप्रवृत्तकरण कहते हैं। इनमें अनुकृष्टि रचना होती है तथा नियम से होनेवाले निम्नलिखित चार आवश्यक कार्य भी होते हैं - १. विशुद्धि प्रति समय अनंतगुणी बढ़ती जाती है। २. स्थिति-बंधापसरण होता है। - चतुर्दश गुणस्थान/१३३ -
SR No.007197
Book TitleTattvagyan Vivechika Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalpana Jain
PublisherA B Jain Yuva Federation
Publication Year2008
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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