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".....सच्चा उपदेश सुनकर, सावधान हो यह जीव विचार करता है कि 'अहो ! मुझे तो इन बातों की खबर ही नहीं थी; मैं तो भ्रम से भूलकर प्राप्त पर्याय में ही तन्मय हुआ था; परन्तु इस पर्याय की तो थोड़े ही काल की स्थिति है तथा यहाँ मुझे सर्व निमित्त मिले हैं; अत: मुझे इन बातों को बराबर समझना चाहिए; क्योंकि इनमें तो मेरा ही प्रयोजन भासित होता है'- ऐसा विचार कर जो उपदेश सुना उसके निर्धार/निर्णय करने का उद्यम किया।" __ निर्धारण करने के तीन अंग हैं – १. उद्देश – उनके नाम सीखना, २. लक्षण निर्देश – उनके लक्षणों को जानना और ३. विचार सहित परीक्षा करना अर्थात् ये तत्त्व आदि ऐसे ही हैं या नहीं' - इस बात पर विचार करना। जिनेन्द्र देव ने तत्त्वादि का स्वरूप जैसा कहा है, उसीप्रकार जब तक निर्णय नहीं हो जाए, तब तक इसीप्रकार अपने विवेक से विचार करे। सन्देह होने पर अन्य साधर्मिओं, विद्वानों, अपने गुरु आदि से पूछे।
उनके द्वारा बताए गए तत्त्व आदि पर पुनर्विचार करे – ऐसा तब तक करता रहे जब तक कि जिनवाणी के कहे अनुसार अपना निर्णय नहीं हो जाए। यह तत्त्व-निर्णय की समग्र प्रक्रिया, देशना लब्धि कहलाती है। ४. प्रायोग्य लब्धि : सतत तत्त्व-विचार और तत्त्व-निर्णय में बारम्बार उपयोग लगाने से प्रगट हुई प्रकृष्ट योग्यता, प्रायोग्य लब्धि है। तत्त्वनिर्णय में बारम्बार उपयोग लगने से प्रतिसमय परिणामों की विशुद्धि बढ़ती जाने के कारण उसका निमित्त पाकर आयुकर्म के बिना शेष सात कर्मों की स्थिति घटकर अंत:कोड़ा-कोड़ी सागर प्रमाण रह जाती है; इसे स्थिति कांडकघात कहते हैं। अप्रशस्त कर्मों का अनुभाग घटकर घाति कर्मों में लता और दारु/देवदारु के समान तथा अघाति कर्मों में नीम और काँजीर के समान रह जाता है; इसे अनुभाग कांडक घात कहते हैं। इस स्थिति में नवीन बंध भी उत्तरोत्तर कम-कम स्थिति वाला होता है; उसे स्थिति बंधापसरण कहते हैं। अनेकानेक स्थिति बंधापसरण के बाद कुछ-कुछ कर्म प्रकृतिओं का बँधना रुकता जाता है; इसे प्रकृति बंधापसरण कहते हैं। ये कुल ३४ होते हैं तथा इनमें ४६ प्रकृतिओं का बंध रुक जाता है।
- तत्त्वज्ञान विवेचिका भाग २/१३२ -