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स्थूलरूप में अविरत सम्यग्दृष्टि को जानने - पहिचानने की पद्धति छहढाला आदि शास्त्रों में "गेही पै गृह में न रचे....." इत्यादि रूपों में उपलब्ध है; अत: हमें अपनी भूमिका का ज्ञान अवश्य ही करना चाहिए; क्योंकि उसके बिना आगे पुरुषार्थ करना सम्भव नहीं है। हाँ ! दूसरों को पहिचानने के प्रपंच में नहीं उलझना चाहिए; क्योंकि उससे समय, शक्ति, उपयोगादि के व्यर्थ विनाश के अतिरिक्त और कुछ भी लाभ नहीं मिलता है; अत: इस प्रसंग में सदा अनेकांत - स्याद्वाद की शरण ही ग्रहणीय है। प्रश्न २८ : भव-रोग-नाशक इस सम्यक्त्व को प्रगट करने के लिए हमें बुद्धि पूर्वक क्या पुरुषार्थ करना चाहिए ?
उत्तर : सैनी पंचेंद्रिय, पर्याप्तक, जागरुक, साकार उपयोगवान चारों गति के जीवों को यह सम्यक्त्व सदा क्षयोपशम, विशुद्धि, देशना, प्रायोग्य और करण - इन पाँच लब्धि पूर्वक ही होता है; अतः बुद्धिपूर्वक इन्हें प्राप्त करने का पुरुषार्थ करना चाहिए।
जब इस जीव का संसार में रहने का काल अधिक से अधिक अर्ध पुद्गल परावर्तन मात्र ही शेष रहता है; तब ही ये पाँचों लब्धिआँ होती हैं; इससे अधिक काल शेष होने पर कभी भी ये पाँचों लब्धिआँ नहीं होती हैं । लब्धि अर्थात् विशिष्ट योग्यता / पात्रता की प्राप्ति । इनका संक्षिप्त स्वरूप इसप्रकार है.
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१. क्षयोपशम लब्धि : आयु कर्म के सिवाय शेष ज्ञानावरणादि समस्त अप्रशस्त कर्म-प्रकृतिओं का अनुभाग अर्थात् फल देने की शक्ति प्रति समय अनंत गुणी - अनंत गुणी घटती हुई अनुक्रमरूप होकर उदय में आने लगना, क्षयोपशम लब्धि है अर्थात् अपने अशुभभावों में उत्तरोत्तर कमी होते जाना, भव्यता के परिपाक का काल निकट आ जाना क्षयोपशम लब्धि है | नियमसार ग्रन्थ की तात्पर्य वृत्ति टीका में मुनि पद्मप्रभ मलधारिदेव ने इसे 'काललब्धि' नाम से सम्बोधित किया है। २. विशुद्धि लब्धि : क्षयोपशम लब्धिवान जीव के सातावेदनीय आदि प्रशस्त प्रकृतिओं के बंध के कारणभूत धर्मानुरागरूप शुभ परिणाम होने लगना, विशुद्धि लब्धि है। क्षयोपशम लब्धि के परिणामस्वरूप जीव के तत्त्वज्ञान विवेचिका भाग २ / १३०