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५. चारित्रसार ग्रन्थ के अनुसार संवेग, निर्वेद, निन्दा, गर्हा, उपशम, भक्ति, अनुकम्पा और वात्सल्य – इन आठ गुणों द्वारा सम्यक्त्व को जाना जा सकता है। ६. ज्ञानार्णव ग्रन्थ में उद्धृत श्लोक अथवा छहढाला आदि ग्रन्थों के अनुसार तीन मूढ़ता, छह अनायतन, आठ मद और शंका आदि आठ दोष - इन पच्चीस दोषों से रहित देव, शास्त्र, गुरु, तत्त्व के सम्यक् श्रद्धान आदि से सम्यग्दर्शन की पहिचान हो जाती है।
निष्कर्ष यह है कि अविरत सम्यग्दृष्टि के संयमभाव नहीं है; तथापि आत्मोन्मुखी वृत्ति सदैव विद्यमान रहने से पंचेंद्रिय विषयभोगों में प्रवृत्ति होने पर भी उनमें उसकी रुचि/स्व-बुद्धि/सुख-बुद्धि नहीं होती है; अतः निंदा-गर्दा पूर्वक ही उनमें उसकी प्रवृत्ति होती है। यह सतत विद्यमान उपेक्षा भाव उसके सम्यक्त्व का सूचक है।
द्रव्यसंग्रह गाथा ४५ की टीका में ब्रम्हदेव सूरी ने इसे भली-भाँति स्पष्ट किया है; जिसका हिंदी-सार इसप्रकार है -
“शुद्धात्म-भावना से उत्पन्न निर्विकार यथार्थ सुखरूपी अमृत को उपादेय कर; संसार; शरीर और भोगों में हेयबुद्धि से सहित वह सम्यग्दर्शन से शुद्ध, चतुर्थ गुणस्थानवर्ती व्रतरहित दर्शनिक कहलाता है।" ___ पंचाध्यायीकार पाण्डे राजमलजी ने पंचाध्यायी द्वितीय अध्याय में इस विषय को जिसप्रकार स्पष्ट किया है। उसकी हिन्दी इसप्रकार है - ___“सम्यग्दृष्टि को सभी प्रकार के भोगों में प्रत्यक्ष रोग के समान अरुचि होती है; क्योंकि विषयों में अवश्यमेव अरुचि का बना रहना, उस सम्यक्त्वरूप अवस्था का स्वत:-सिद्ध स्वभाव है।।२६१॥
इसप्रकार तत्त्वों को जानने वाला यह स्वात्मदर्शी सम्यग्दृष्टि जीव इंद्रिय-जन्य सुख और ज्ञान में राग-द्वेष का परित्याग करे ॥३७१।।"
“सम्यग्दृष्टेर्भवति नियतं ज्ञान-वैराग्य-शक्ति:-सम्यग्दृष्टि के ज्ञान और वैराग्य की शक्ति नियत/निश्चित ही होती है-समयसार कलश १३६ प्रथम चरण' इसके माध्यम से आचार्य अमृतचंद्रदेव ने अत्यंत संक्षेप में सम्यग्दर्शन को पहिचानने के चिन्ह बता दिए हैं।
- चतुर्दश गुणस्थान/१२९